3.7.17

हिन्दी के स्वयंसेवक बनें

डॉवेदप्रताप वैदिक
अपने कामकाज और व्यवहार के लिए हम पराई भाषा पर आश्रित क्यों रहेंहर हिंदीभाषी अपनीजगह परअपना काम करते हुए हिन्दी का स्वयंसेवक बने


सौ साल पहले तक फिनलैंड के लोग स्वीड भाषा का इस्तेमाल करते थे। उन्होंने एक दिन तय किया कि वे अपनी भाषा चलाएंगे। बसदूसरे दिन से ही कामशुरू हो गया। और आज फिनी भाषा के ज़रिए सारा कामकाज अच्छी तरह चल रहा है। असल बात हैतय कर लेना। 1966 की बात हैमुझे इंडियन स्कूल ऑफ़इंटरनेशनल स्टडीज़ से निकाल दिया गया था। वहां मुझे सबसे ऊंची फेलोशिप मिलती थीसबसे बड़ा वजीफ़ा मिलता थाफिर भी मुझे निकाल दिया गया। कारण :मैं हिंदी में शोधग्रंथ लिखना चाहता थापीएचडी करना चाहता था। मामले ने तूल पकड़ लिया। तीन सालों के दौरान संसद इस मुद्दे पर कई बार ठप हुईदेशभर मेंहंगामा हुआ। राममनोहर लोहियाआचार्य जेबी कृपलानीगुरु गोलवलकरअटल बिहारी वाजपेयीप्रोबलराज मधोकभागवत झा आज़ादसिद्धेश्वर प्रसादहेमबरुआलगभग सभी दलों के तमाम नेताओं ने आवाज़ उठाई। स्वयं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को सीधा हस्तक्षेप करना पड़ा। अंततस्कूल के संविधान में संशोधनहुआ और मुझे वापस लिया गया। मैंने अफ़गानिस्तान सम्बंधी अपना शोधग्रंथ हिंदी में लिखा। इस तरह हिंदी भाषा में लिखे गए शोध प्रबंध पर मुझे देश में पहलीपीएचडी मिली।
सबसे महत्वपूर्ण है स्वभाषा
               ऐसा नहीं है कि हिंदी मेरी मजबूरी है। मैंने अंग्रेज़ीफ़ारसीजर्मनरूसी समेत कई भाषाएं सीखी हैंपर मैं अपना सारा कामकाज हिंदी में करता हूं। मैंहिंदुस्तान के अंग्रेज़ी भाषियों को अर्धशिक्षित मानता हूं। ऐसे लोगजिनकी शिक्षा पूरी नहीं हुई हैजिन्होंने अपनी भाषा को ही नहीं जाना है। मेरे लिए स्वभाषा कामुद्दा सबसे बड़ा है। यह उन दिनों की बात हैजब पुष्पेंद्र चौहान और उनके जैसे अन्य युवा दिल्ली में संघ लोक सेवा आयोग के सामने हिंदी के लिए 10 वर्ष तकअनशन करते रहे। मैं तब समाचार एजेंसी पीटीआई की हिंदी समाचार समिति ‘भाषा’ का सम्पादक था। अनशनकारियों की मदद करता रहता था। एक दिन एककेंद्रीय मंत्री ने मुझे फोन करके कहा कि आप सम्पादक होते हुए इन सब पचड़ों में क्यों पड़ते हैंमैंने उन्हें दो टूक कह दिया कि मेरे लिए सम्पादकी से कहीं बड़ी है,हिंदी। यह मेरे लिए धर्म से भी महत्वपूर्ण है। मैंने कहा कि कोई भी पद स्वभाषा से बड़ा नहीं हो सकता।
         हम लोगों ने भारतीय भाषा आंदोलन चलायाजिसे सारे देश में अपार समर्थन मिला। इस सिलसिले में मैं सारे देश में घूमा हूं और मैं जहां भी गयाहिंदी औरभारतीय भाषाओं के लिए जुनूनी लोग मिले। कोई छात्र थाकोई गृहिणीकोई दुकानदारतो कोई लिपिक। ये लोग हिंदी की शक्ति हैं।
हम सबकुछ कर सकते हैं
        करोड़ों हिंदुस्तानीजो हिंदी से प्रेम करते हैंवे सबकुछ कर सकते हैं। वे अपना सामान्य कामकाज करते हुए भी हिंदी आंदोलन चला सकते हैं। इसके लिएआवश्यक है कि जो जहां हैवहीं अपना कार्य और व्यवहार हिंदी में करे।
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 हस्ताक्षर हिंदी में किए जाएं। चूंकि हस्ताक्षर पहचान चिह् ही होते हैंइसलिए आप अंग्रेज़ी दस्तावेज़ों में भी देवनागरी में हस्ताक्षर कर सकते हैं।
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अपने पारिवारिकसामाजिक और धार्मिक आयोजनों के निमंत्रण-आमंत्रण पत्र हिंदी में ही छपवाएं।
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हिंदी में पत्र लिखें और लिफ़ाफ़े पर पता भी देवनागरी हिंदी में ही लिखें। अंग्रेज़ी पत्रों के जवाब भी हिंदी में दें।
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अपनी दुकान-प्रतिष्ठान का नाम हिंदी में रखें और उसे देवनागरी में ही लिखाएं। उदाहरण के लिए, ‘राम एंड ब्रदर्स’ के स्थान पर ‘राम बंधु’ नाम में अपनत्व भी हैऔर यह आकर्षक भी होगा।
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ख़रीदारी और अन्य कारोबारी कामों की पावती रसीद तथा अन्य कागज़ात हिंदी में छपवाएं।
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आवेदन पत्र हिंदी में लिखें। बैंकरेलवे आदि के प्रपत्र हिंदी में ही भरें।
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जो अपने विषय के विशेषज्ञ हैंवे विदेशी भाषा की स्तरीय पुस्तकों का अनुवाद हिंदी में करें या हिंदी में पुस्तकें रचें।
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बोलचाल में अंग्रेज़ी शब्दों का अनावश्यक प्रयोग  करें। अपनी मातृभाषा में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों को भी लाने का प्रयत्न करें।
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संकल्प के साथ सारे काम स्वभाषा में शुरू कर दें। 
जब हिंदी की वजह से देश की संसद ठप हुई
हिंदी को सम्मान दिलाने का सपना बचपन से ही​ दिल में था। इंदौर से ही हिंदी आंदोलन की शुरुआत की। लेकिन अगर सरकार से ही ठन जाए तो फिर कौन बचसकता हैअगस्त 1965 की बात हैडिफेंस आॅफ इंडिया रुल के तहत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। तीन साल वहां रहा। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में शोध कीइच्छा थी। जेल से पीएचडी के लिए आवेदन किया। पिता चाहते थे कि देश में रह कर ही पढ़ूं। सो दिल्ली के इंडियन स्कूल आॅफ इंटरनेशनल स्टडीज़ (अब जेएनयूमेंप्रवेश लिया। छात्रावास का अध्यक्ष बनाइसके उद्घाटन के लिए मैंने मोरारजी देसाई को आमंत्रित किया। मोरारजी ने हिंदी में ही अपनी बात खत्म की। इसके बादमैंने अपना शोध हिंदी में ही पूरा किया। लेकिन विवि ने लेने से इंकार कर दियाकहा— यहां अंग्रेजी में ही पढ़ाई होती है इसलिए उसी में लिखना होगा। मैं नहीं मानातो विवि से बाहर कर दिया। मैं तमाम सांसदों से समर्थन लेने गया। राममनोहर लोहियाअटलजीमधु लिमयेजैसे बड़े लोगों ने मेरा समर्थन किया। संसद कीकार्रवाई जैसे ही शुरु होती मेरे विषय पर हंगामा होने लगता। कई दिन संसद ठप रही। परेशान होकर लोकसभा स्पीकर ओमसिंह ने मुझे बुलायाबोले— वैदिककोई हल बताओ। इसके बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुझे समझाया। मैं नहीं माना। इंदिरा ने विवि के अनुदान पर रोक लगा दी और मेरा शोध स्वीकारने कोकहा। मजबूर हो विवि को अपने संविधान में संशोधन करना पड़ा। शोधग्रंथ भी स्वीकार करना पड़ा। यह हिंदी की जीत थी।
— हमेशा से ही हिंदी के लिए लड़ता रहा। वर्तमान में हिंदी में हस्ताक्षर का अभियान चला रहा हूं। लोगों से अपील है कि सिर्फ अपने हस्ताक्षर ही हिंदी में कर दें।
 लेखक परिचय
डॉवेदप्रताप वैदिक
नेटजाल.कॉम‘ के संपादकीय निदेशकलगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन तथा भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष।

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