10.8.10

क्या हिंदी बदल रही है?

> बहुत अधिक बदलाहट को हिंदी में स्वीकार ही कर लिया गया है बल्कि उसे अधिकाधिक
> प्रयोग भी किया जाने लगा है...यानी कि उसे हिंदी में बिलकुल समा ही लिया गया
> है....किन्तु अब जो स्थिति आन पड़ी है....जिसमें कि हिंदी को बड़े बेशर्म ढंग
> से ना सिर्फ हिन्लिश में लिखा-बोला-प्रेषित किया जा रहा है बल्कि रोमन लिपि में
> लिखा भी जा रहा है कुछ जगहों पर...और तर्क है कि
> जो युवा बोलते-लिखते-चाहते हैं...!!
> ....तो एक बार मैं सीधा-सीधा यह पूछना या कहना चाहता हूँ कि युवा
> तो और भी " बहुत कुछ " चाहते हैं....!!तो क्या आप अपनी प्रसार-संख्या बढाने के
> " वो सब " भी "उन्हें" परोसेंगे....?? तो फिर दूसरा प्रश्न मेरा यह पैदा हो
> जाएगा....तो फिर उसमें आपके बहन-बेटी-भाई-बीवी-बच्चे सभी तो होंगे.....तो क्या
> आप उन्हें भी...."वो सब" उपलब्ध करवाएंगे ....तर्क तो यह कहता है दुनिया के सब
> कौवे काले हैं....मैं काला हूँ....इसलिए मैं भी कौवा हूँ....!!....अबे ,आप इस
> तरह का तर्क लागू करने वाले "तमाम" लोगों अपनी कुचेष्टा को आप किसी और पर क्यूँ
> डाल देते हो....??
> मैं बहुत गुस्से (क्रोध) में आप सबों से यह पूछना चाहता हूँ...कि
> रातों-रात आपकी माँ को बदल दिया जाए तो आपको कैसा लगेगा....??यदि आप यह कहना
> चाहते हैं कि बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा....या फिर आप मुझे गाली देना चाह रहे
> हों....या कि आप मुझे नफरत (घृणा) की दृष्टि से देखने लगें हो...इनमें से जो
> भी बात आप पर लागू हो, उससे यह तो प्रकट ही है कि ऐसा होना आपको नागवार लगेगा
> बल्कि मेरे द्वारा यह कहा जाना भी आपको उतना ही नागवार गुजर रहा है....तो फिर
> आप ही बताईये ना कि आखिर किस प्रकार आप अपनी भाषा को तिलांजलि देने में लगे
> हुए हैं ??
> आखिर हिंदी रानी ने ऐसा क्या पाप किया है कि जिसके कारण आप इसकी
> हमेशा ऐसी-की-तैसी करने में जुटे हुए रहते है...???....हिंदी ने आपका कौन-सा
> काम बिगाड़ा है या फिर उसने आपका ऐसा कौन-सा कार्य नहीं बनाया है कि आपको उसे
> बोले या लिखे जाने पर लाज महसूस (अनुभव) होती है....क्या आपको अपनी बूढी माँ को
> देखकर शर्म आती है...?? यदि हाँ ,तो बेशक छोड़ दीजिये माँ को भी और हिंदी को
> अभी की अभी....मगर यदि नहीं...तो हिंदी कीहिंदी मत ना कीजिये प्लीज़....भले ही
> इंग्लिश आपके लिए ज्ञान-विज्ञान वाली भाषा है... मगर हिंदी का क्या कोई मूल्य
> नहीं आपके जीवन में...??
> क्या हिंदी में "...ज्ञान..."नहीं है...?? क्या हिंदी में आगे
> बढ़ने की ताब नहीं ??क्या हिंदी वाले विद्वान् नहीं होते....?? मेरी समझ से तो
> हिंदी का लोहा और संस्कृत का डंका तो अब आपकी नज़र में सुयोग्य और जबरदस्त
> प्रतिभावान- संपन्न विदेशीगण भी मान रहे हैं...आखिर यही हिंदी-भारत कभी विश्व
> का सिरमौर का रह चुका है....विद्या-रूपी धन में भी....और भौतिक धन में
> भी...क्या उस समय इंग्लिश थी भारत में....या कि इंगलिश ने भारत में आकर इसका
> भट्टा बिठाया है...इसकी-सभ्यता का-संस्कृति का..परम्परा का और अंततः समूचे
> संस्कार का...भी...!!
> आज यह भारत अगर दीन-हीन और श्री हीन होकर बैठा है तो उसका कारण
> यह भी है कि अपनी भाषा...अपने श्रम का आत्मबल खो जाने के कारण यह देश अपना
> स्वावलंबन भी खो चुका,....सवा अरब लोगों की आबादी में कुछेक करोड़ लोगों की
> सफलता का ठीकरा पीटना और भारत के महाशक्ति होने का मुगालता पालना...यह गलतफहमी
> पालकर इस देश के बहुत सारे लोग बहुत गंभीर गलती कर रहे हैं...क्यूँ कि देश का
> अधिकांशतः भाग बेहद-बेहद-बेहद गरीब है...अगर अंग्रेजी का वर्चस्व रोजगार के
> साधनों पर न हुआ होता...और उत्पादन-व्यवस्था इतनी केन्द्रीयकृत ना बनायी गयी
> होती तो....जैसे उत्पादन और विक्रय-व्यवस्था भारत की अपनी हुआ करती थी....शायद
> ही कोई गरीब हुआ होता...शायद ही स्थिति इतनी वीभत्स हुई होती....मार्मिक हुई
> होती...!!
> हिंदी के साथ वही हुआ, जो इस देश अर्थव्यवस्था के साथ हुआ....आज
> देश अपनी तरक्की (उन्नति) पर चाहे जितना इतरा ले ...मगर यहाँ केअमीर-से-अमीर
> व्यक्ति में भाषा का स्वाभिमान नहीं है....और एक गरीब व्यक्ति का स्वाभिमान तो
> खैर हमने बना ही नहीं रहने दिया....और ना ही मुझे यह आशा भी है कि हम उसे कभी
> पनपने भी देंगे.....!! ऐसे हालात में कम-से-कम जो भाषा भाई-चारे-प्रेम-स्नेह की
> भाषा बन सकती है....उसे हमने कहीं तो दोयम ही बना दिया है...कहीं झगडे का
> घर....तो कहीं जानबूझकर नज़रंदाज़ (अबहेलना) किया हुआ है...वो भी इतना कि मुझे
> कहते हुए भी शर्म आती है...कि इस देश का तमाम अमीर-वर्ग ,जो दिन-रात हिंदी की
> खाता है....ओढ़ता है...पहनता है....और उसी से अपनी तिजोरी भी भरता है....मगर
> सार्वजनिक जीवन में हिंदी को ऐसा लतियाता है....कि जैसे खा-पीकर-अघाकर किसी
> "रंडी" को लतियाया जाता हो.....मतलब पेट भरते ही....हिंदी की.....!!! ऐसे
> बेशर्म
> वर्ग को क्या कहें,जो हिंदी का कमाकर अंग्रेजी में टपर-टपर करता है.....जिसे
> जिसे देश का आम जन कहता है बिटिर-बिटिर....!!
> क्या आप कभी अपनी दूकान से कमाकर शाम को दूकान में आग लगा देते
> हैं.....??क्या आप जवान होकर अपने बूढ़े माँ-बाप को धक्का देकर घर से बाहर कर
> देते हैं....तो हुजुर....माई.....बाप....सरकारे-आला (उच्च)....हाकिम....हिंदी
> ने भी आपका क्या बिगाड़ा है,....वह तो आपकी मान की तरह आपके जन्म से लेकर आपकी
> मृत्यु तक आपके हर कार्य को साधती ही है....और आप चाहे तो उसे और भी
> लतियायें,अपने माँ-बाप की तरह... तब भी वह आखिर तक आपके काम आएगी ही...यही
> हिंदी का
> अपनत्व है आपके प्रति या कि ममत्व ,चाहे जो कहिये ,अब आपकी मर्ज़ी है कि उसके
> प्रति आप नमक-हलाल बनते हैं या "हरामखोर......"??
> ----------------------------------------

3 comments:

kishore ghildiyal said...

bahut achha likha hain aapne

अनुनाद सिंह said...

ये काले अंग्रेज हिन्दीवालों में तरह-तरह के भ्रम फैलाकर हिन्दी की शक्ति को कम करने में लगे हुए हैं।

हिन्दी की शक्ति है -
* उसकी वैज्ञानिक लिपि
* उसको बोलने समझने वाली जनता (पचास करोड़ से भी अधिक)
* उसका समृद्ध साहित्य
* उसकी सरलता
* आम जनता से उसका जुड़ाव
* भारत के स्वतंत्रता-संग्राम की वाहिका और वर्तमान में देशप्रेम का अमूर्त-वाहन
* भारत की सम्पर्क भाषा
* भारत की राजभाषा

Bhanu pratap singh said...

HINDI BHARAT H, BHARAT HINDI H,
HINDI BHARAT KA PRAAN H

ABHAAAAR..