> बहुत अधिक बदलाहट को हिंदी में स्वीकार ही कर लिया गया है बल्कि उसे अधिकाधिक
> प्रयोग भी किया जाने लगा है...यानी कि उसे हिंदी में बिलकुल समा ही लिया गया
> है....किन्तु अब जो स्थिति आन पड़ी है....जिसमें कि हिंदी को बड़े बेशर्म ढंग
> से ना सिर्फ हिन्लिश में लिखा-बोला-प्रेषित किया जा रहा है बल्कि रोमन लिपि में
> लिखा भी जा रहा है कुछ जगहों पर...और तर्क है कि
> जो युवा बोलते-लिखते-चाहते हैं...!!
> ....तो एक बार मैं सीधा-सीधा यह पूछना या कहना चाहता हूँ कि युवा
> तो और भी " बहुत कुछ " चाहते हैं....!!तो क्या आप अपनी प्रसार-संख्या बढाने के
> " वो सब " भी "उन्हें" परोसेंगे....?? तो फिर दूसरा प्रश्न मेरा यह पैदा हो
> जाएगा....तो फिर उसमें आपके बहन-बेटी-भाई-बीवी-बच्चे सभी तो होंगे.....तो क्या
> आप उन्हें भी...."वो सब" उपलब्ध करवाएंगे ....तर्क तो यह कहता है दुनिया के सब
> कौवे काले हैं....मैं काला हूँ....इसलिए मैं भी कौवा हूँ....!!....अबे ,आप इस
> तरह का तर्क लागू करने वाले "तमाम" लोगों अपनी कुचेष्टा को आप किसी और पर क्यूँ
> डाल देते हो....??
> मैं बहुत गुस्से (क्रोध) में आप सबों से यह पूछना चाहता हूँ...कि
> रातों-रात आपकी माँ को बदल दिया जाए तो आपको कैसा लगेगा....??यदि आप यह कहना
> चाहते हैं कि बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा....या फिर आप मुझे गाली देना चाह रहे
> हों....या कि आप मुझे नफरत (घृणा) की दृष्टि से देखने लगें हो...इनमें से जो
> भी बात आप पर लागू हो, उससे यह तो प्रकट ही है कि ऐसा होना आपको नागवार लगेगा
> बल्कि मेरे द्वारा यह कहा जाना भी आपको उतना ही नागवार गुजर रहा है....तो फिर
> आप ही बताईये ना कि आखिर किस प्रकार आप अपनी भाषा को तिलांजलि देने में लगे
> हुए हैं ??
> आखिर हिंदी रानी ने ऐसा क्या पाप किया है कि जिसके कारण आप इसकी
> हमेशा ऐसी-की-तैसी करने में जुटे हुए रहते है...???....हिंदी ने आपका कौन-सा
> काम बिगाड़ा है या फिर उसने आपका ऐसा कौन-सा कार्य नहीं बनाया है कि आपको उसे
> बोले या लिखे जाने पर लाज महसूस (अनुभव) होती है....क्या आपको अपनी बूढी माँ को
> देखकर शर्म आती है...?? यदि हाँ ,तो बेशक छोड़ दीजिये माँ को भी और हिंदी को
> अभी की अभी....मगर यदि नहीं...तो हिंदी कीहिंदी मत ना कीजिये प्लीज़....भले ही
> इंग्लिश आपके लिए ज्ञान-विज्ञान वाली भाषा है... मगर हिंदी का क्या कोई मूल्य
> नहीं आपके जीवन में...??
> क्या हिंदी में "...ज्ञान..."नहीं है...?? क्या हिंदी में आगे
> बढ़ने की ताब नहीं ??क्या हिंदी वाले विद्वान् नहीं होते....?? मेरी समझ से तो
> हिंदी का लोहा और संस्कृत का डंका तो अब आपकी नज़र में सुयोग्य और जबरदस्त
> प्रतिभावान- संपन्न विदेशीगण भी मान रहे हैं...आखिर यही हिंदी-भारत कभी विश्व
> का सिरमौर का रह चुका है....विद्या-रूपी धन में भी....और भौतिक धन में
> भी...क्या उस समय इंग्लिश थी भारत में....या कि इंगलिश ने भारत में आकर इसका
> भट्टा बिठाया है...इसकी-सभ्यता का-संस्कृति का..परम्परा का और अंततः समूचे
> संस्कार का...भी...!!
> आज यह भारत अगर दीन-हीन और श्री हीन होकर बैठा है तो उसका कारण
> यह भी है कि अपनी भाषा...अपने श्रम का आत्मबल खो जाने के कारण यह देश अपना
> स्वावलंबन भी खो चुका,....सवा अरब लोगों की आबादी में कुछेक करोड़ लोगों की
> सफलता का ठीकरा पीटना और भारत के महाशक्ति होने का मुगालता पालना...यह गलतफहमी
> पालकर इस देश के बहुत सारे लोग बहुत गंभीर गलती कर रहे हैं...क्यूँ कि देश का
> अधिकांशतः भाग बेहद-बेहद-बेहद गरीब है...अगर अंग्रेजी का वर्चस्व रोजगार के
> साधनों पर न हुआ होता...और उत्पादन-व्यवस्था इतनी केन्द्रीयकृत ना बनायी गयी
> होती तो....जैसे उत्पादन और विक्रय-व्यवस्था भारत की अपनी हुआ करती थी....शायद
> ही कोई गरीब हुआ होता...शायद ही स्थिति इतनी वीभत्स हुई होती....मार्मिक हुई
> होती...!!
> हिंदी के साथ वही हुआ, जो इस देश अर्थव्यवस्था के साथ हुआ....आज
> देश अपनी तरक्की (उन्नति) पर चाहे जितना इतरा ले ...मगर यहाँ केअमीर-से-अमीर
> व्यक्ति में भाषा का स्वाभिमान नहीं है....और एक गरीब व्यक्ति का स्वाभिमान तो
> खैर हमने बना ही नहीं रहने दिया....और ना ही मुझे यह आशा भी है कि हम उसे कभी
> पनपने भी देंगे.....!! ऐसे हालात में कम-से-कम जो भाषा भाई-चारे-प्रेम-स्नेह की
> भाषा बन सकती है....उसे हमने कहीं तो दोयम ही बना दिया है...कहीं झगडे का
> घर....तो कहीं जानबूझकर नज़रंदाज़ (अबहेलना) किया हुआ है...वो भी इतना कि मुझे
> कहते हुए भी शर्म आती है...कि इस देश का तमाम अमीर-वर्ग ,जो दिन-रात हिंदी की
> खाता है....ओढ़ता है...पहनता है....और उसी से अपनी तिजोरी भी भरता है....मगर
> सार्वजनिक जीवन में हिंदी को ऐसा लतियाता है....कि जैसे खा-पीकर-अघाकर किसी
> "रंडी" को लतियाया जाता हो.....मतलब पेट भरते ही....हिंदी की.....!!! ऐसे
> बेशर्म
> वर्ग को क्या कहें,जो हिंदी का कमाकर अंग्रेजी में टपर-टपर करता है.....जिसे
> जिसे देश का आम जन कहता है बिटिर-बिटिर....!!
> क्या आप कभी अपनी दूकान से कमाकर शाम को दूकान में आग लगा देते
> हैं.....??क्या आप जवान होकर अपने बूढ़े माँ-बाप को धक्का देकर घर से बाहर कर
> देते हैं....तो हुजुर....माई.....बाप....सरकारे-आला (उच्च)....हाकिम....हिंदी
> ने भी आपका क्या बिगाड़ा है,....वह तो आपकी मान की तरह आपके जन्म से लेकर आपकी
> मृत्यु तक आपके हर कार्य को साधती ही है....और आप चाहे तो उसे और भी
> लतियायें,अपने माँ-बाप की तरह... तब भी वह आखिर तक आपके काम आएगी ही...यही
> हिंदी का
> अपनत्व है आपके प्रति या कि ममत्व ,चाहे जो कहिये ,अब आपकी मर्ज़ी है कि उसके
> प्रति आप नमक-हलाल बनते हैं या "हरामखोर......"??
> ----------------------------------------
10.8.10
क्या हिंदी बदल रही है?
बीबीसी हिब्दी द्वारा कल आयोजित परिचर्चा "क्या हिंदी बदल रही है?" के विषय में जारी सूचना के उपरांत प्रभु जोशी जी से बात हुई और आज उनसे सूचना मिली कि बीबीसी पर उक्त परिचर्चा के लिए प्रश्नोत्तर की रेकार्डिंग हुई है| उक्त परिचर्चा में विशेषज्ञ के रूप में प्रभु जोशी जी को व अन्य कुछ सजग भागीदारों को सुनने के लिए नीचे दिए लिंक पर जाएँ.
परिचर्चा इतनी रोचक व महत्वपूर्ण है कि आप इसे बार बार सुनना चाहेंगे| जोशी जी हमारे समूह हिन्दी-भारत के सम्मानित सदस्य भी हैं व उनके लेखन से हम निरंतर सम्पर्क में रहते हैं| २००७ में जब यह समूह प्रारम्भ किया था तो आरंभिक दिनों में इसी विषय पर केन्द्रित उनके एक लम्बे लेख "इसलिए बिदा करना चाहते हैं हिन्दी को हिन्दी के अखबार" को शृंखला के रूप में समूह के सदस्यों व ब्लॉग पर पाठकों से हमने साझा किया था|
मीडिया प्लेयर चलाने के लिए उक्त लिंक को क्लिक करें -
http://www.bbc.co.uk/hindi/multimedia/2010/07/100723_indiabol_language.shtml
Vijay K. Malhotra
क्या हिंदी बदल रही है?
पिछले डेढ़ दशक में हिंदी का स्वरूप काफ़ी बदल गया है या फिर इसे जान बूझ कर बदलने की कोशिश हो रही है. कई हिंदी अख़बारों ने तो हिंदी की जगह हिंग्लिश का इस्तेमाल धड़ल्ले से शुरू कर दिया है.
इसके पक्ष में तर्क ये दिया जाता है कि आज की युवा पीढ़ी जैसी भाषा बोलती है वैसी ही भाषा हम सबको इस्तेमाल करनी चाहिए. यानी प्रधानमंत्री की जगह प्राइम मिनिस्टर, छात्र की जगह स्टूडेंट्स और दुर्घटना की जगह एक्सीडेंट!
लेकिन क्या ऐसे प्रयोगों से हिंदी का अस्तित्व बच पाएगा? क्या हिंदी भाषा का ये बदलता चेहरा आपको स्वीकार्य है?
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विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय,भारत सरकार
Vijay K Malhotra, Former Director (Hindi), Ministry of Railways, Govt. of India
URL
बीबीसी इंडिया बोल में आयोजित परिचर्चा पर लिखते समय तक कुल ७१ टिप्पणियाँ आईं , देखने के लिए निम्न लिंक पर जाएँ
"क्या हिंदी बदल रही है?"
http://newsforums.bbc.co.uk/ws/hi/thread.jspa?forumID=12241
जहाँ हिंदी भाषी नागरिकों को मारा-काटा या सताया जाएगा और सताने वाले कानून पर भी भारी पड़ते जाएंगे, जहाँ हिन्दी भाषियों को हीन समझा जाएगा या जहाँ हिन्दी लोगों की उन्नति,मान-सम्मान या रोजगार के अच्छे अवसरों की प्राप्ति में बाधक होगी, जहाँ अधिकांश लोग अपने बच्चों को तो अंग्रजी माध्यम में शिक्षा दिलाएंगे और अन्य लोगों को उपदेश हिन्दी का देंगे तो वहाँ भला हिन्दी क्यों नहीं बदलेगी?
सिद्धार्थ कौसलायन आर्य ग्रेटर नौएडा-भारत
यह हमारे लिए अफ़सोस की बात है कि मिलावटी सामान पर तो हाय-तौबा मचाते हैं, पर भाषा में मिलावट करने में हमें गर्व महसूस करते हैं. अगर अंग्रेजी ही बोलनी है तो शुद्ध अंग्रेजी बोलें. यूँ हिंदी में अंग्रेजी मिलाकर बोलेंगे तो गलत असर डालेगी.
Bablu Kolkata
हिंदी का स्वरूप बदलने के किए जा रहे प्रयास कदापि स्वीकार नहीं किए जा सकते. कुछ लोग अपने दिमाग का कचरा हिंदी भाषा पर थोपना चाहते हैं. क्या विश्व में अन्यत्र ऐसी कोई भाषा है जिसे इस प्रकार विकृत किया गया हो? हिंदी के अल्पज्ञान को छुपाने के लिये ये लोग भाषा का स्वरूप ही विकृत करने पर तुले हैं. सभी हिंदी प्रेमी एकजुट होकर इसका विरोध करें.
विनोद शर्मा जयपुर
इसकी कोई आवयश्कता नहीं कि आज के समाचार-पत्र हिंग्लिश भाषा का प्रयोग करें. हिंदी समाचार-पत्र पढ़ने वाले हिंदी अच्छी तरह जानते और समझते हैं. हिंग्लिश के बारे में उनका दिया गया तर्क बेतुका लगता है. हिंदी समाचार-पत्रों का यह दायित्व है कि हिंदी के शब्दों को ही प्रोत्साहन दे, तभी हिंदी बच पाएगी.हिंदी भाषा का यह बदलता स्वरुप हमें कतई स्वीकार्य नहीं.
कृष्णा तर्वे, मुंबई
हमारी भावना, संवेदना, गुस्सा, स्वप्न, सब मातृभाषा में ही प्रकट होते हैं. अंग्रेजी सीखना चाहिए, लेकिन हिंदी के पतन के साथ नहीं. मां कैसी भी हो, बदली नहीं जाती.
नारन गोजिया राजकोट, गुजरात
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From: RAJEEV THEPRA
Subject: Hindi ke prati aap kyaa bananaa chaahenge....namak-halaal....ya haraamkhor.....???
दोस्तों , बहुत ही गुस्से (क्रोध) के साथ इस विषय पर मैं अपनी भावनाएं आप सबके साथ बांटना चाहता हूँ ,वो यह कि हिंदी के साथ आज जो किया जा रहा है ,जाने और अनजाने हम सब ,जो इसके सिपहसलार बने हुए हैं,इसके साथ जो किये जा रहे हैं....वह अत्यंत दुखद है...मैं सीधे-सीधे आज आप सबसे यह पूछता हूँ कि मैं आपकी माँ...आपके बाप....आपके भाई-बहन या किसी भी दोस्त- रिश्तेदार या ऐसा कोई भी जिसे आप पहचानते हैं....उसका चेहरा अगर बदल दूं तो क्या आप उसे पहचान लेंगे....??? एक दिन के लिए भी यदि आपके किसी भी पहचान वाले चेहरे को बदल दें तो वो तो कम , अपितु आप उससे अभिक " "
परेशान "हो जायेंगे.....!!
थोड़ी-बहुत बदलाहट की और बात होती है....समूचा ढांचा ही " रद्दोबदल " कर देना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता.....सिर्फ एक बार कल्पना करें ना आप....कि जब आप किसी भी वस्तु को एकदम से बिलकुल ही नए फ्रेम में नयी तरह से अकस्मात देखते हैं,तो पहले-पहल आपके मन में उसके प्रति क्या प्रतिक्रिया होती है...!!.
हिन्दी पकवान में कितनी अंगरेजी
वेदमित्र
Ved Mohla <vedmohla@yahoo.com>
हिन्दी भाषा में अंगरेजी के शब्दों का समावेश करने के बारे में भाषाशास्त्रियों में चर्चाएं चलती रहती हैं। हिन्दी ही क्या, विभिन्न भाषाएं एक-दूसरी भाषा के शब्दों के आदान-प्रदान से मुख्यत: समृद्ध ही होती हैं। नए शब्द बहुधा एक नई ताजगी अपने साथ लाते हैं, जिससे भाषा का संदर्श व्यापक होता है। उदाहरण के लिए मानसून शब्द पूर्वी एशिया से भारत आया और ऐसा रम गया जैसे वह यहां का ही मूलवासी हो। दक्षिण भारत से ‘जिंजर’ सारी दुनिया में चला गया और विडम्बना यह है कि अनेक लोग उसे पश्चिम की देन मानते हैं। इसी प्रकार उत्तर भारत के योग शब्द से स्वास्थ्य लाभ करने वाले सारे संसार में फैले हुए हैं।
अभी पिछले कुछ वर्षों में इन्डोनेशिया आदि से ‘सुनामी’ की लहर ऐसी उठी जिसकी शक्ति सारे संसार ने अनुभव की। ‘रेडियो’ कहीं भी पैदा हुआ, वह सार्वभौमिक बन गया। अंगरेजी का ‘बिगुल’ पूरे दक्षिण एशिया में बजता है।
केवल शक्तिशाली शब्द ही दूसरी भाषाओं में नहीं जाते हैं। अनेक साधारण-से दीखने वाले शब्द भी महाद्वीपों को पार कर जाते हैं। जब लोग विदेश से लौटते हैं, तो वे अपने साथ वहां दैनिक व्यवहार में उपयोग होने वाले कुछ शब्दों को भी अपने सामान के साथ बांध लाते हैं। अंगरेज जब इंगलैण्ड वापस गए, तो भारत के ‘धोबी’ और ‘आया’ को भी साथ ले गए। इसी प्रकार पूर्वी और पश्चिमी अफ्रीका से लौटे भारतीयों का साथ ‘किस्सू’ (चाकू), ‘मचुंगा’ (संतरा) और ‘फगिया’ (झाड़ू) भी चली आई।
किसी अन्य भाषा के शब्दों या शब्द-समूहों का उपयोग हजारों वर्षों से होता आया है। यदि एक पंडितजी अपने हिन्दी प्रवचन में संस्कृत के किसी श्लोक आदि का उद्धरण दें या कोई मौलवी कुरान की अरबी भाषा की आयत के माध्यम से अपने विचार को सिद्ध करे, तो सुनने या पढ़ने वाले लोग उसका लोहा मानते हैं। लैटिन की कुछ पंक्तियां बीच में डाल देने से आलेख की गरिमा बढ़ जाती है। यदि कोई व्यक्ति शेक्सपियर, शैली या कीट्स आदि की कुछ पंक्तियां वक्तव्य में छिड़क दे, तो वह अपने अध्ययन की व्यापकता प्रदर्शित करता है। फ्रेंच मुहावरे ‘डे जावू’ आदि का प्रयोग मनुष्य के उच्च सामाजिक क्षेत्र की झलक दिखाता है।
दूसरी भाषा के शब्द देशी हों या विदेशी, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। हां, अन्तर पड़ता है उनकी मात्रा से। जहां एक ओर दाल में नमक की तरह दूसरी भाषा के शब्द उसे स्वादिष्ट बनाते हैं, वहां उनकी बहुतायत उसे गले से नीचे नहीं उतरने देती। एक बार एक संयासी भारत से इंगलैण्ड आए। अपने कुछ सलाहकारों के आग्रह पर उन्होंने अपना प्रवचन अंगरेजी में देना आरम्भ किया। श्रोताओं के हाव-भाव से शीघ्र ही उन्हें स्पष्ट हो गया कि सभी उनकी बात समझ रहे थे। तो फिर क्या कमी थी! उन्होंने प्रयोग के रूप में अपनी भाषा प्रवचन के बीच ही बदली ।हिन्दी में बोलने लगे। उसके साथ ही अंगरेजी के कुछ चुने हुए शब्द भी वे प्रयोग करते रहे। हृदय और मस्तिष्क के सम्मेलन ने उनके प्रवचन को सरस और प्रभावकारी बना दिया था।
जब हिन्दी के कुछ हितैषी अपनी भाषा में अंगरेजी की बढ़ती घिसपैठ का विरोध करते हैं, तो अंगरेजीवादी अल्पसंख्यक खीज उठते हैं। वे अपने विरोधियों पर आरोप लगाते हैं कि वे लोग हिन्दी को सभी अच्छी धाराओं से काटकर उसे तालाब या पोखर बनाना चाहते हैं। वह उनका दृष्टिकोण है, जो उनका मूलभूत अधिकार है। परन्तु यदि उपमा की बात हो, तो एक उपमा यह भी दी जा सकती है कि कोई भी स्वाभिमानी जलप्रबंधक एक स्वच्छ नदी में किसी भी छोटी-मोटी जलधारा को प्रवेश देने की अनुमति प्रदान करने से पूर्व अपने आप को संतुष्ट कर लेना चाहेगा कि वह जलधारा कूड़े-कचरे से मुक्त हो। यदि इसके निरीक्षण-परीक्षण पर वह जलधारा खरी उतरे, तो वह उसे आने देगा अन्यथा नहीं क्योंकि वह जानता है कि अपरीक्षित जल न केवल स्वयं गंददी से भरा हो सकता है बल्कि पूरी नदी को भी अपनी सड़ांद से भर डालने की क्षमता रखता है।
अंगरेजी के कुछ समर्थक हिन्दी पर अनम्यता और दूसरी भाषाओं के साथ मिलकर काम न करने का आरोप लगाते हैं। उन्हें संतुष्ट करने के लिए अरबी और फारसी के साथ बनाए गए शब्दों की लम्बी सूची बनाना या उनके बारे में अधिक लिखना पाठकों के सहजज्ञान का अपमान करने जैसा होगा। फिर भी प्रसंगवश एक शब्द तो यहां दिया ही जा सकता है: चौराहा शब्द को देखकर कितने लोग सोचते हैं कि वह दो भाषाओं के मिलन से बनाया गया है। इसी तरह अंगरेजी से मिलकर रेलगाड़ी, बमबारी, डाक्टरी और रेडियोधर्मी किरण जैसे अनेक शब्द हमने बनाए हैं। उनका प्रयोग करने में किसी भी हिन्दी भाषी को आपत्ति नहीं।
भारत की स्वंतरता पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया। तब पुरुषोत्तमदास टंडन, डाo राजेन्द्रप्रसाद आदि के प्रभाव से विद्यालयों में हिन्दी को शिक्षा का मुख्य माध्यम आरम्भ हुआ। सौभाग्यवश मैं उस पीढ़ी का व्यक्ति हूं जिसने गणित, भूगोल, भौतिकी और रसायनशास्त्र आदि विषय हिन्दी में पढ़े। जी हां, लघुत्तम, महत्तम, वर्ग, वर्गमूल, चक्रवर्ती ब्याज और अनुपात जैसे शब्दों से मैंने अंकगणित सीखा। उच्च गणित में समीकरण, ज्या, कोज्या, बल, शक्ति और बलों के त्रिभुजों का बोलबाला रहा। भूगोल पढ़ते समय उष्णकटिबंध, जलवायु, भूमध्यरेखा, ध्रुव और पठार जैसे शब्द बहुत सहजभाव से मेरे शब्द-भंडार का अंग बन गए। विज्ञान में द्रव्यमान, भार, गुरुत्वाकर्षण, व्यतक्रमानुपात, चुम्बकीय क्षेत्र, मिश्रण, यौगक और रसायनिक क्रिया आदि शब्दों ने मुझे कभी भी भयभीत नहीं किया। और न ही किसी व्यवसाय को चिकित्सक या लेखाकार घोषित करते हुए मेरे मन में किसी प्रकार का हीनभाव आया। मैं आज तक स्वयं को सिविल अभियंता (अंगरजी के साथ मिलाकर बनाया गया एक अन्य शब्द) कहने में गर्व अनुभव करता हूं।
जिनकी गोद में बैठकर आज की पीढ़ी ने कविता लिखनी सीखी उन्होंने बच्चों के लिए भूगोल (राधेश्याम शर्मा प्रगल्भ) और ऐतिहासिक घटनाओं (सुमित्राकुमारी चौहान व सोहनलाल द्विवेदी) आदि विषयों पर सरल और सुन्दर कविताएं लिखीं। जयशंकरप्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, मैथलीशरण गुप्त, देवराज दिनेश, रामधारी सिंह दिनकर और गोपालदास नीरज आदि को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए अंगरेजी की शरण में जाने की आवश्यकता कभी अनुभव नहीं हुई। महादेवी वर्मा बिना अंगरेजी की सहायता के न केवल तारक मंडलों की यात्राएं करती रहीं, बल्कि जो भी उनके सम्पर्क में आया उसे पढ़ती भी रहीं। हरिवंशराय बच्चन ने अंगरेजी की सरिता में गोते तो खूब लगाए और अपने पाठकों के लिए उस सरिता के अनेक रत्न भी निकालकर सौंपे, परन्तु उस भाषा को अपने मूल लेखन में फटकने तक नहीं दिया। आचार्य चतुरसेन शास्त्री, वृन्दावनलाल वर्मा और प्रेमचन्द अपनी भाषा से करोड़ों पाठकों के पास पहुंचे। जहां एक ओर यशपाल, डाo धर्मवीर भारती, और सच्चिदानंद वात्सयायन अज्ञेय आदि का अंगरेजी से कोई झगड़ा नहीं हुआ, वहां दूसरी ओर उन्होंने अपने साहित्य में इस भाषा के शब्दों की आवश्यकता कभी नहीं समझी। डाo सत्यप्रकाश (गणित), डाo कार्तिकप्रसाद (तकनीकी विषय), श्यामसुन्दर शर्मा (विज्ञान-प्रगति) और जयप्रकाश भारती (विज्ञान) आदि अपने चुने हुए क्षेत्रों में जटिल विषयों पर धड़ल्ले से लिखते रहे। मैंने स्वयं भूगर्भशास्त्र पर हिन्दी की पहली पुस्तक ‘धरती की दैलत’ में धातुमेल (अलाँय) और ‘संसार के अनोखे पुल’ नामक पुस्तक में छज्जापुल (कैन्टीलीवर ब्रिज) और मेहराब (आर्च) जैसे शब्द प्रयोग किए, जिन्हें पाठक समझ गए।
निश्चय ही ऐसे भी अनेक सफल लेखक और कवि हुए हैं जिन्होंने अंगरेजी के शब्दों का सफलतापूर्वक उपयोग अपने साहित्य में किया है। काका हाथरसी की कविता में अंगरेजी के शब्द देखे जा सकते हैं। उल्लेखनीय यह है कि काका ने उन शब्दों का प्रयोग मुख्यतः तुकबन्दी के लिए किया और काफी हास्य सृजन भी उससे हुआ। क्या कोई यह कह सकता है कि यदि वे अंगरेजी के इन शब्दों का प्रयोग न करते, तो उनकी कविता में हास्य कम पड़ जाता? कुछ भी हो, उनकी कविता के पकवान में अंगरेजी शब्दों की चीनी पाठकों को प्रिय लगी। परन्तु अब कुछ लोग मात्र चीनी से ही हमें संतुष्ट करना चाहते हैं – मावा भूल जाइए, बस चीनी भर ही फंकिए। आखिर इस परिवर्तन का कारण क्या है?
बिना किसी मीठी लपेट लगाए मैं कहना चाहूंगा कि यह सब अंगरेजी के पक्षधरों के गुप्त षड़यन्त्र का परिणाम है। जिस भाषा को अस्थायी रूप से सहराष्ट्रभाषा की मान्यता दी गई थी, उसके प्रभावशाली अनुयायी एक ओर तो जय हिन्दी का नारा लगाते रहे और दूसरी ओर हिन्दी की जड़ें काटने में लगे रहे। उन्होंने धीरे-धीरे पहले उच्च शिक्षा ओर फिर बाद में माध्यमिक शिक्षा, हिन्दी के बदले अंगरेजी में दिए जाने में भरपूर शक्ति लगा दी। यदि हिन्दी भाषा किसी प्रकार उनके चंगुल से बच भी गई, तो तमाम अंगरेजी तकनीकी शब्द उसमें ठूंस दिए गए यह बहाना बनाकर कि हिन्दी के शब्द संस्कृतनिष्ट और जटिल हैं; भौतिकी कठिन है- फिजिक्स सरल है, विकल्प आंखों के आगे अंधेरा ला देता है- आल्टरनेटिव तो भारत का जन्मजात शिशु भी समझता है। धीरे-धीरे चलनेवाली इस मीठी छुरी से कटी भारत की भोली जनता पर इन पन्द्रह-बीस वर्षों में एक ऐसा मुखुर अल्पमत छा गया है, जो सड़क को रोड, बाएं-दाएं को लैफ्ट-राइट, परिवार को फैमली, चाचा-मामा को अंकल, रंग को कलर, कमीज को शर्ट, तश्तरी को प्लेट, डाकघर को पोस्ट आफिस और संगीत को म्यूजिक आदि शब्दों से ही पहचानता है। उनके सामने हिन्दी के साधारण से साधारण शब्द बोलिए, तो वे टिप्पणी करते हैं कि आप बहुत शुद्ध और क्लिष्ट हिन्दी बोलते हैं। यदि आप किसी पुरुष को सर या महिला को मैडम शब्द द्वारा संबोधित न करें, तो वे आपको ऐसे देखते हैं जैसे उनके सामने कोई अनपढ़ गंवार आ खड़ा हुआ हो।
वर्तमान भाषा नीति पर आधारित उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद इस अल्पमत के सदस्यों के लिए अंगरेजी शब्दों के फूलों की लड़ियां प्रयोग किए बिना चार वाक्य भी एक साथ हिन्दी में लिखना या बोलना कठिन दिखाई देता है। वे कहते हैं:
इक्सक्यूस मी, अभी आप पेशन्ट को नहीं देख सकते।
या
मैं कनाट प्लेस में ही शौपिंग करता हूं।
या
मेरा हसबैण्ड बिजनेसमैन है।
या
इन्डिया में बहौत प्रोग्रस हुई है।
यह भाषायी दिवालापन नहीं, तो और क्या है। एक संस्मरण: पिछले वर्ष ऐसे ही एक व्यक्ति ने दूरभाष पर मुझसे कहा: “मैंने सोचा कि आपको बर्थडे विश कर दूं ।” मैंने इन्हें उत्तर दिया कि आप मुझे विष देने के बदले अपनी शुभकामनाएं दें। अपने वाक्य के विद्रूप को सुनकर वे खूब हंसे और उन्होंने सौगंद खाई कि भविष्य में कभी भी किसी भी व्यक्ति को विष नहीं देंगे। क्या हिन्दी के सभी हितैषियों को ऐसा ही नहीं करना चाहिए?
हिन्दी की ऐसी दुर्दशा के लिए एक-दूसरे पर आरोप लगाने के बदले यह कहीं अधिक उपयोगी होगा कि हम सभी हिन्दीप्रेमी एकजुट होकर नई पीढ़ी की भाषायी योग्यता को बढ़ाने का प्रयत्न करें। कुछ लाख लोगों को विदेश से विदेशीमुद्रा के थैले भरकर लाने या कालसैंटर – दूरभाष केन्द्र में बैठकर विदेशी ग्राहकों से अंगरेजी में बात करने की क्षमतावाले लोगों की सेना तैयार करने की धुन में हम भारत के करोड़ों युवक-यवतियों की शैक्षणिक आवश्यकताओं को अनदेखा कर रहे हैं। उनकी क्षमताओं का पूर्णतः विकास करने के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें राष्ट्रभाषा या मातृभाषा में शिक्षा दी जाए – प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च और तकनीकी शिक्षा तक। पहले उन्हें हिन्दी में सभी विषय पढ़ाइए, हिन्दी के शब्दों के साथ। तब देखिए कि उन्हें अंरेजी की कितनी आवश्यकता या मजबूरी - विवशता रह जाती है। हिन्दी केवल सड़कों पर ठुमका लगाते हुए चलचित्र बनाने वालों की भाषा नहीं है। न ही हिन्दी केवल उनके लिए है जो अपने कुछ मित्रों के साथ बैठकर वाह-वाह करने मात्र से संतुष्ट हो जाते हों, बल्कि उन सभी के लिए भी होनी चाहिए जिनमें अपना जीवन – विज्ञान, न्याय, शिक्षा, व्यवस्था, शोध और विकास की समस्त कार्यप्रणाली हिन्दी में कर सकने की क्षमता हो।
यदि हमने ऐसा नहीं किया, तो कुछ ही वर्षों में स्थिति इतनी बिगड़ जाएगी कि आज की हिन्दी समझने वाले लोग बचेंगे ही नहीं। अंगरेजी ही सब कुछ हो जाएगी – सहराष्ट्रभाषा के बदले वह राष्टट्रभाषा घोषित कर दी जाएगी। तब शायद हिन्दी लेखकों या कवियों की बात किसी की भी समझ में नहीं आएगी और हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं या पुस्तकों की आवश्यकता भी न रह जाएगी। आशा है कि हम सब मिलकर इस भंयकर संभावना को रोक सकेंगे।
Ved Mohla <vedmohla@yahoo.com>
हिन्दी भाषा में अंगरेजी के शब्दों का समावेश करने के बारे में भाषाशास्त्रियों में चर्चाएं चलती रहती हैं। हिन्दी ही क्या, विभिन्न भाषाएं एक-दूसरी भाषा के शब्दों के आदान-प्रदान से मुख्यत: समृद्ध ही होती हैं। नए शब्द बहुधा एक नई ताजगी अपने साथ लाते हैं, जिससे भाषा का संदर्श व्यापक होता है। उदाहरण के लिए मानसून शब्द पूर्वी एशिया से भारत आया और ऐसा रम गया जैसे वह यहां का ही मूलवासी हो। दक्षिण भारत से ‘जिंजर’ सारी दुनिया में चला गया और विडम्बना यह है कि अनेक लोग उसे पश्चिम की देन मानते हैं। इसी प्रकार उत्तर भारत के योग शब्द से स्वास्थ्य लाभ करने वाले सारे संसार में फैले हुए हैं।
अभी पिछले कुछ वर्षों में इन्डोनेशिया आदि से ‘सुनामी’ की लहर ऐसी उठी जिसकी शक्ति सारे संसार ने अनुभव की। ‘रेडियो’ कहीं भी पैदा हुआ, वह सार्वभौमिक बन गया। अंगरेजी का ‘बिगुल’ पूरे दक्षिण एशिया में बजता है।
केवल शक्तिशाली शब्द ही दूसरी भाषाओं में नहीं जाते हैं। अनेक साधारण-से दीखने वाले शब्द भी महाद्वीपों को पार कर जाते हैं। जब लोग विदेश से लौटते हैं, तो वे अपने साथ वहां दैनिक व्यवहार में उपयोग होने वाले कुछ शब्दों को भी अपने सामान के साथ बांध लाते हैं। अंगरेज जब इंगलैण्ड वापस गए, तो भारत के ‘धोबी’ और ‘आया’ को भी साथ ले गए। इसी प्रकार पूर्वी और पश्चिमी अफ्रीका से लौटे भारतीयों का साथ ‘किस्सू’ (चाकू), ‘मचुंगा’ (संतरा) और ‘फगिया’ (झाड़ू) भी चली आई।
किसी अन्य भाषा के शब्दों या शब्द-समूहों का उपयोग हजारों वर्षों से होता आया है। यदि एक पंडितजी अपने हिन्दी प्रवचन में संस्कृत के किसी श्लोक आदि का उद्धरण दें या कोई मौलवी कुरान की अरबी भाषा की आयत के माध्यम से अपने विचार को सिद्ध करे, तो सुनने या पढ़ने वाले लोग उसका लोहा मानते हैं। लैटिन की कुछ पंक्तियां बीच में डाल देने से आलेख की गरिमा बढ़ जाती है। यदि कोई व्यक्ति शेक्सपियर, शैली या कीट्स आदि की कुछ पंक्तियां वक्तव्य में छिड़क दे, तो वह अपने अध्ययन की व्यापकता प्रदर्शित करता है। फ्रेंच मुहावरे ‘डे जावू’ आदि का प्रयोग मनुष्य के उच्च सामाजिक क्षेत्र की झलक दिखाता है।
दूसरी भाषा के शब्द देशी हों या विदेशी, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। हां, अन्तर पड़ता है उनकी मात्रा से। जहां एक ओर दाल में नमक की तरह दूसरी भाषा के शब्द उसे स्वादिष्ट बनाते हैं, वहां उनकी बहुतायत उसे गले से नीचे नहीं उतरने देती। एक बार एक संयासी भारत से इंगलैण्ड आए। अपने कुछ सलाहकारों के आग्रह पर उन्होंने अपना प्रवचन अंगरेजी में देना आरम्भ किया। श्रोताओं के हाव-भाव से शीघ्र ही उन्हें स्पष्ट हो गया कि सभी उनकी बात समझ रहे थे। तो फिर क्या कमी थी! उन्होंने प्रयोग के रूप में अपनी भाषा प्रवचन के बीच ही बदली ।हिन्दी में बोलने लगे। उसके साथ ही अंगरेजी के कुछ चुने हुए शब्द भी वे प्रयोग करते रहे। हृदय और मस्तिष्क के सम्मेलन ने उनके प्रवचन को सरस और प्रभावकारी बना दिया था।
जब हिन्दी के कुछ हितैषी अपनी भाषा में अंगरेजी की बढ़ती घिसपैठ का विरोध करते हैं, तो अंगरेजीवादी अल्पसंख्यक खीज उठते हैं। वे अपने विरोधियों पर आरोप लगाते हैं कि वे लोग हिन्दी को सभी अच्छी धाराओं से काटकर उसे तालाब या पोखर बनाना चाहते हैं। वह उनका दृष्टिकोण है, जो उनका मूलभूत अधिकार है। परन्तु यदि उपमा की बात हो, तो एक उपमा यह भी दी जा सकती है कि कोई भी स्वाभिमानी जलप्रबंधक एक स्वच्छ नदी में किसी भी छोटी-मोटी जलधारा को प्रवेश देने की अनुमति प्रदान करने से पूर्व अपने आप को संतुष्ट कर लेना चाहेगा कि वह जलधारा कूड़े-कचरे से मुक्त हो। यदि इसके निरीक्षण-परीक्षण पर वह जलधारा खरी उतरे, तो वह उसे आने देगा अन्यथा नहीं क्योंकि वह जानता है कि अपरीक्षित जल न केवल स्वयं गंददी से भरा हो सकता है बल्कि पूरी नदी को भी अपनी सड़ांद से भर डालने की क्षमता रखता है।
अंगरेजी के कुछ समर्थक हिन्दी पर अनम्यता और दूसरी भाषाओं के साथ मिलकर काम न करने का आरोप लगाते हैं। उन्हें संतुष्ट करने के लिए अरबी और फारसी के साथ बनाए गए शब्दों की लम्बी सूची बनाना या उनके बारे में अधिक लिखना पाठकों के सहजज्ञान का अपमान करने जैसा होगा। फिर भी प्रसंगवश एक शब्द तो यहां दिया ही जा सकता है: चौराहा शब्द को देखकर कितने लोग सोचते हैं कि वह दो भाषाओं के मिलन से बनाया गया है। इसी तरह अंगरेजी से मिलकर रेलगाड़ी, बमबारी, डाक्टरी और रेडियोधर्मी किरण जैसे अनेक शब्द हमने बनाए हैं। उनका प्रयोग करने में किसी भी हिन्दी भाषी को आपत्ति नहीं।
भारत की स्वंतरता पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया। तब पुरुषोत्तमदास टंडन, डाo राजेन्द्रप्रसाद आदि के प्रभाव से विद्यालयों में हिन्दी को शिक्षा का मुख्य माध्यम आरम्भ हुआ। सौभाग्यवश मैं उस पीढ़ी का व्यक्ति हूं जिसने गणित, भूगोल, भौतिकी और रसायनशास्त्र आदि विषय हिन्दी में पढ़े। जी हां, लघुत्तम, महत्तम, वर्ग, वर्गमूल, चक्रवर्ती ब्याज और अनुपात जैसे शब्दों से मैंने अंकगणित सीखा। उच्च गणित में समीकरण, ज्या, कोज्या, बल, शक्ति और बलों के त्रिभुजों का बोलबाला रहा। भूगोल पढ़ते समय उष्णकटिबंध, जलवायु, भूमध्यरेखा, ध्रुव और पठार जैसे शब्द बहुत सहजभाव से मेरे शब्द-भंडार का अंग बन गए। विज्ञान में द्रव्यमान, भार, गुरुत्वाकर्षण, व्यतक्रमानुपात, चुम्बकीय क्षेत्र, मिश्रण, यौगक और रसायनिक क्रिया आदि शब्दों ने मुझे कभी भी भयभीत नहीं किया। और न ही किसी व्यवसाय को चिकित्सक या लेखाकार घोषित करते हुए मेरे मन में किसी प्रकार का हीनभाव आया। मैं आज तक स्वयं को सिविल अभियंता (अंगरजी के साथ मिलाकर बनाया गया एक अन्य शब्द) कहने में गर्व अनुभव करता हूं।
जिनकी गोद में बैठकर आज की पीढ़ी ने कविता लिखनी सीखी उन्होंने बच्चों के लिए भूगोल (राधेश्याम शर्मा प्रगल्भ) और ऐतिहासिक घटनाओं (सुमित्राकुमारी चौहान व सोहनलाल द्विवेदी) आदि विषयों पर सरल और सुन्दर कविताएं लिखीं। जयशंकरप्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, मैथलीशरण गुप्त, देवराज दिनेश, रामधारी सिंह दिनकर और गोपालदास नीरज आदि को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए अंगरेजी की शरण में जाने की आवश्यकता कभी अनुभव नहीं हुई। महादेवी वर्मा बिना अंगरेजी की सहायता के न केवल तारक मंडलों की यात्राएं करती रहीं, बल्कि जो भी उनके सम्पर्क में आया उसे पढ़ती भी रहीं। हरिवंशराय बच्चन ने अंगरेजी की सरिता में गोते तो खूब लगाए और अपने पाठकों के लिए उस सरिता के अनेक रत्न भी निकालकर सौंपे, परन्तु उस भाषा को अपने मूल लेखन में फटकने तक नहीं दिया। आचार्य चतुरसेन शास्त्री, वृन्दावनलाल वर्मा और प्रेमचन्द अपनी भाषा से करोड़ों पाठकों के पास पहुंचे। जहां एक ओर यशपाल, डाo धर्मवीर भारती, और सच्चिदानंद वात्सयायन अज्ञेय आदि का अंगरेजी से कोई झगड़ा नहीं हुआ, वहां दूसरी ओर उन्होंने अपने साहित्य में इस भाषा के शब्दों की आवश्यकता कभी नहीं समझी। डाo सत्यप्रकाश (गणित), डाo कार्तिकप्रसाद (तकनीकी विषय), श्यामसुन्दर शर्मा (विज्ञान-प्रगति) और जयप्रकाश भारती (विज्ञान) आदि अपने चुने हुए क्षेत्रों में जटिल विषयों पर धड़ल्ले से लिखते रहे। मैंने स्वयं भूगर्भशास्त्र पर हिन्दी की पहली पुस्तक ‘धरती की दैलत’ में धातुमेल (अलाँय) और ‘संसार के अनोखे पुल’ नामक पुस्तक में छज्जापुल (कैन्टीलीवर ब्रिज) और मेहराब (आर्च) जैसे शब्द प्रयोग किए, जिन्हें पाठक समझ गए।
निश्चय ही ऐसे भी अनेक सफल लेखक और कवि हुए हैं जिन्होंने अंगरेजी के शब्दों का सफलतापूर्वक उपयोग अपने साहित्य में किया है। काका हाथरसी की कविता में अंगरेजी के शब्द देखे जा सकते हैं। उल्लेखनीय यह है कि काका ने उन शब्दों का प्रयोग मुख्यतः तुकबन्दी के लिए किया और काफी हास्य सृजन भी उससे हुआ। क्या कोई यह कह सकता है कि यदि वे अंगरेजी के इन शब्दों का प्रयोग न करते, तो उनकी कविता में हास्य कम पड़ जाता? कुछ भी हो, उनकी कविता के पकवान में अंगरेजी शब्दों की चीनी पाठकों को प्रिय लगी। परन्तु अब कुछ लोग मात्र चीनी से ही हमें संतुष्ट करना चाहते हैं – मावा भूल जाइए, बस चीनी भर ही फंकिए। आखिर इस परिवर्तन का कारण क्या है?
बिना किसी मीठी लपेट लगाए मैं कहना चाहूंगा कि यह सब अंगरेजी के पक्षधरों के गुप्त षड़यन्त्र का परिणाम है। जिस भाषा को अस्थायी रूप से सहराष्ट्रभाषा की मान्यता दी गई थी, उसके प्रभावशाली अनुयायी एक ओर तो जय हिन्दी का नारा लगाते रहे और दूसरी ओर हिन्दी की जड़ें काटने में लगे रहे। उन्होंने धीरे-धीरे पहले उच्च शिक्षा ओर फिर बाद में माध्यमिक शिक्षा, हिन्दी के बदले अंगरेजी में दिए जाने में भरपूर शक्ति लगा दी। यदि हिन्दी भाषा किसी प्रकार उनके चंगुल से बच भी गई, तो तमाम अंगरेजी तकनीकी शब्द उसमें ठूंस दिए गए यह बहाना बनाकर कि हिन्दी के शब्द संस्कृतनिष्ट और जटिल हैं; भौतिकी कठिन है- फिजिक्स सरल है, विकल्प आंखों के आगे अंधेरा ला देता है- आल्टरनेटिव तो भारत का जन्मजात शिशु भी समझता है। धीरे-धीरे चलनेवाली इस मीठी छुरी से कटी भारत की भोली जनता पर इन पन्द्रह-बीस वर्षों में एक ऐसा मुखुर अल्पमत छा गया है, जो सड़क को रोड, बाएं-दाएं को लैफ्ट-राइट, परिवार को फैमली, चाचा-मामा को अंकल, रंग को कलर, कमीज को शर्ट, तश्तरी को प्लेट, डाकघर को पोस्ट आफिस और संगीत को म्यूजिक आदि शब्दों से ही पहचानता है। उनके सामने हिन्दी के साधारण से साधारण शब्द बोलिए, तो वे टिप्पणी करते हैं कि आप बहुत शुद्ध और क्लिष्ट हिन्दी बोलते हैं। यदि आप किसी पुरुष को सर या महिला को मैडम शब्द द्वारा संबोधित न करें, तो वे आपको ऐसे देखते हैं जैसे उनके सामने कोई अनपढ़ गंवार आ खड़ा हुआ हो।
वर्तमान भाषा नीति पर आधारित उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद इस अल्पमत के सदस्यों के लिए अंगरेजी शब्दों के फूलों की लड़ियां प्रयोग किए बिना चार वाक्य भी एक साथ हिन्दी में लिखना या बोलना कठिन दिखाई देता है। वे कहते हैं:
इक्सक्यूस मी, अभी आप पेशन्ट को नहीं देख सकते।
या
मैं कनाट प्लेस में ही शौपिंग करता हूं।
या
मेरा हसबैण्ड बिजनेसमैन है।
या
इन्डिया में बहौत प्रोग्रस हुई है।
यह भाषायी दिवालापन नहीं, तो और क्या है। एक संस्मरण: पिछले वर्ष ऐसे ही एक व्यक्ति ने दूरभाष पर मुझसे कहा: “मैंने सोचा कि आपको बर्थडे विश कर दूं ।” मैंने इन्हें उत्तर दिया कि आप मुझे विष देने के बदले अपनी शुभकामनाएं दें। अपने वाक्य के विद्रूप को सुनकर वे खूब हंसे और उन्होंने सौगंद खाई कि भविष्य में कभी भी किसी भी व्यक्ति को विष नहीं देंगे। क्या हिन्दी के सभी हितैषियों को ऐसा ही नहीं करना चाहिए?
हिन्दी की ऐसी दुर्दशा के लिए एक-दूसरे पर आरोप लगाने के बदले यह कहीं अधिक उपयोगी होगा कि हम सभी हिन्दीप्रेमी एकजुट होकर नई पीढ़ी की भाषायी योग्यता को बढ़ाने का प्रयत्न करें। कुछ लाख लोगों को विदेश से विदेशीमुद्रा के थैले भरकर लाने या कालसैंटर – दूरभाष केन्द्र में बैठकर विदेशी ग्राहकों से अंगरेजी में बात करने की क्षमतावाले लोगों की सेना तैयार करने की धुन में हम भारत के करोड़ों युवक-यवतियों की शैक्षणिक आवश्यकताओं को अनदेखा कर रहे हैं। उनकी क्षमताओं का पूर्णतः विकास करने के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें राष्ट्रभाषा या मातृभाषा में शिक्षा दी जाए – प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च और तकनीकी शिक्षा तक। पहले उन्हें हिन्दी में सभी विषय पढ़ाइए, हिन्दी के शब्दों के साथ। तब देखिए कि उन्हें अंरेजी की कितनी आवश्यकता या मजबूरी - विवशता रह जाती है। हिन्दी केवल सड़कों पर ठुमका लगाते हुए चलचित्र बनाने वालों की भाषा नहीं है। न ही हिन्दी केवल उनके लिए है जो अपने कुछ मित्रों के साथ बैठकर वाह-वाह करने मात्र से संतुष्ट हो जाते हों, बल्कि उन सभी के लिए भी होनी चाहिए जिनमें अपना जीवन – विज्ञान, न्याय, शिक्षा, व्यवस्था, शोध और विकास की समस्त कार्यप्रणाली हिन्दी में कर सकने की क्षमता हो।
यदि हमने ऐसा नहीं किया, तो कुछ ही वर्षों में स्थिति इतनी बिगड़ जाएगी कि आज की हिन्दी समझने वाले लोग बचेंगे ही नहीं। अंगरेजी ही सब कुछ हो जाएगी – सहराष्ट्रभाषा के बदले वह राष्टट्रभाषा घोषित कर दी जाएगी। तब शायद हिन्दी लेखकों या कवियों की बात किसी की भी समझ में नहीं आएगी और हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं या पुस्तकों की आवश्यकता भी न रह जाएगी। आशा है कि हम सब मिलकर इस भंयकर संभावना को रोक सकेंगे।
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