26.4.10

मैं हिंदी हूँ !

विश्व के लगभग १३७ देशों में हमारे अनुयायी बसते हैं, वे मुझसे वेहद प्रेम करते हैं। १९९८ के पूर्व मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के जो आँकडे उपलब्ध हुए, उनमें मैं तीसरे पायदान पर हूँ ।
प्रो. महावीर सरन जैन, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक ने यूनेस्को की टेक्नीकल कमेटी फार द वर्ल्ड लैंग्वेजज को प्रामाणिक आँकडों एवं तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध किया कि विश्व में चीनी के बाद दूसरा स्थान मेरा ही है ।
जापान में प्रोफेसर तनाकाजी ने बी.ए., एम.ए. स्तर की शिक्षा का पाठ्यक्रम इस विवेक व वयस्कता से तैयार किया है कि वह जापानी विद्यार्थी के मन में मेरे प्रति प्रेम जगाने के साथ उसके मानस में भारतीय संस्कृति - संवेदना, मिथक चेतना का उजला प्रकाश भर सके।
जापान में विदेशी भाषाओं के साथ उन देशों के शिष्टाचार, खानपान, वेशभूषा, गीत, बोली-बानी से अंतरंगता स्थापित करने के लिए विद्यार्थी संस्कृति दिवस मनाते हैं। हिन्दी पढने वाली जापानी लडकियाँ साडी पहनकर तथा अन्य भारतीय वस्त्र धारण कर विश्व विद्यालय केम्पस में आती हैं।
इंग्लैंड के कैंब्रिज, ऑक्सफोर्ड, लंदन व यॉर्क विश्व विद्यालयों में मेरी पढाई होती है।
लंदन विश्वविद्यालय के प्राच्य एवं अफ्रीकी अध्ययन स्कूल में भी मेरी पढाई विधिवत् चलती है। इंग्लैण्ड, वेल्स, स्कॉटलैंड के स्कूलों, मिडलैंड के विभिन्न शहरों, उत्तर के ब्रैडफोड के हिन्दू मंदिरों में बच्चे मुझे पढते हैं।
कनाडा में लगभग बीस वर्षों से हिन्दू इंस्टिट्यूट ऑफ लर्निंग टोरंटो में सक्रिय है। इस संस्था के अध्यक्ष श्री जगदीश चन्द्र शारदा व प्रधानाचार्य रत्नाकर नराले हैं। इस संस्था का मुख्य कार्य मेरा प्रसार करना है, साथ ही संस्कृत, गीता, रामायण का भी प्रचार-प्रसार करती है।
मॉरीशस ने मुझे बहुत सम्मान दिया है -
वहां २५४ प्राथमिक विद्यालयों में, ५८५ अध्यापक व ४८,८४२ छात्र मुझे सीख रहे हैं। ६४ माध्यमिक विद्यालयों में मेरी दीप शिखा प्रज्वलित है। गैर सरकारी विद्यालयों में ६२ विद्यालयों में ५२०० छात्र मेरे उन्नयन की दिशा में अध्ययनरत हैं।
मॉरीशस की संसद ने १२ नवम्बर २००२ को एक अधिनियम के द्वारा विश्व हिन्दी सचिवालय की स्थापना की।

इटली में वेनिस, टूरिन तथा रोम में मेरी पढाई होती है । ओरिएंटल विश्वविद्यालय नेपोली (नेपुल्स), टूरिन, वेनिस, रोम विश्वविद्यालयों में शिक्षण कार्य होता है। एक साल में मेरी पढाई के आधारभूत व्याकरण के नियमों से परिचित करा दिया जाता है। भारत के बाहर यूरोप में इटली ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ पाँच विश्वविद्यालयों में सुचारू रूप से मेरी पढाई होती है ।
नीदरलैंड्स में हिन्दी प्रचार संस्था लायडन विश्वविद्यालय, हिन्दू ब्राडकास्टिंग कॉरपोरेशन ओहम् डच हिन्दी समिति, लायडन आदि अनेक संस्थाएँ मिलजुलकर मेरे प्रचार-प्रसार के लिए कार्यरत हैं। प्रवासी भारतीय मेरी पुस्तकें मँगाते हैं, मंदिरों, स्कूलों, भजन-कीर्तनों, संस्कार गीतों में मेरा ही उपयोग करते हैं। उनका कहना है कि यदि हमने आने वाली पीढी को हिन्दी सीखने के लिए प्यार से प्रेरित नहीं किया तो हिन्दी और सरनामी भाषाएँ समाप्त हो जाएँगी। डच तो रोटी रोजी की भाषा है परन्तु तुर्की व मोरक्को की तीसरी पीढी अभी तक गर्व से अपनी भाषा बोलती है जबकि भारतवंशीय क्यों पिछड रहे ?
सरनामी में मैं एक समृद्ध भाषा हूँ । जापान में प्रो. तोषियो तनाका हिन्दी के विद्वान् के रूप में विख्यात हैं। उन्होंने हाकुसुइशा (हिन्दी प्रवेश), इंदो नो शूक्यो तो गेई जित्सु (भारत के धर्म और कलाएँ) जैसी पुस्तकें तैयार की हैं।
मास्को के जवाहरलाल नेहरू सांस्कृतिक केन्द्र ने हिन्दी रूसी शब्दकोश का प्रकाशन किया है। रूसी विद्वान् जाल्मन दीप शित्स का हिन्दी व्याकरण एक मानक ग्रन्थ है। प्रो. येवोनी येलिशेव ने सुमित्रा नन्दन पंत और आधुनिक हिन्दी कविता शीर्षक से आलोचनात्मक पुस्तक लिखी है। रूसी आलोचक अलेक्सांद्र की पुस्तक ? समकालीन हिन्दी साहित्य और समाज? के अन्तर्सम्बन्ध को नई दृष्टि से परिभाषित करती है।
यह विचित्र किन्तु सत्य है कि जहां की मैं मूल निवासी हूँ वहां मेरे निवासी होने पर ही प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है जबकि परदेशी लोग मेरे होने के एहसास मात्र से ही रोमांचित हो जाते हैं, है न विडंबना ?
सोचिये बार-बार सोचिये ऐसा क्यों है ?

1 comment:

Anonymous said...

हिन्दी के सामने देश के अन्दर और बाहार, दोनो जगह ढेर सारी चुनौतिया है । फिर भी हिन्दी अपने दम पर विश्व भाषा बनने की और अग्रसर है। दुखः की बात है की भारत की वर्तमान सत्ता स्वयं हिन्दी विरोधी है।