कैरियर की जद्दोजेहद, अखबार की कमजोर नौकरी, पहाड़ सी सामाजिक जिम्मेदारियां, कुछ इस वातावरण में शुरू हुआ था न्याय और विधि के क्षेत्र में हिन्दी की पूर्णप्रतिष्ठा का अभियान। अखबार के दफ्तर में रात की पाली में काम करते हुए यह संकल्प लिया था। चला, तब जेब में आठ सौ रुपए थे, बैंक में खाता ही नहीं था तो भरा और खाली होने का सवाल बेमानी था।
१२वीं कक्षा में पढ़ते हुए जब 'आज' अखबार में अपने पोथी-पत्रा लेकर पहुंचा तो पत्रकार और विधि प्राध्यापक बनने का सपना भी मेरे साथ था। थोड़ी देर में सम्पादक और मेरे सबसे आदरणीय और प्रिय भ्रातातुल्य श्री शशि शेखर जी (वर्तमान में समूह-सम्पादक दैनिक अमर उजाला) का कक्ष में आने के लिए बुलावा आया, मुझे देखकर चौंके, बेटा क्या छपवाना है? उनका पहला प्रश्न था। मैंने धीरे से लगभग हकलाते हुए कहा, छपवाना नहीं, छापना है। फिर डपटने वाले अंदाज में पूछा, क्या चाहते हो? पत्रकार बनना चाहता हूं, मैंने कहा था। फिर सहज होकर जोर से हंसे और बोले, अभी पत्रकार बनने के लिए तुम बहुत छोटे हो, पहले पढ़ो, फिर पत्रकार बनना। मैंने कहा कि मैं पढ़ने के और लड़ने के लिए पत्रकार बनना चाहता हूं। वो गंभीर हो गए। फिर पूछा, समाचार क्या होता है? मैंने कहा, जो कुछ नया घटता है उसे समाचार कहते है। एक क्षण उनकी आंखों में अपनत्व का ऐसा भाव उभरा, मुझे लगा कि मैं छायादार और फलदार विशालकाय वृक्ष के नीचे खड़ा हूं। पिता का साया बचपन में ही मेरे सिर से उठ गया था। मां पर हिमालय सी जिम्मेदारियां थी, मकान के आधे हिस्से का मामूली सा किराया, बाकी पिता की थोड़ी-बहुत संचित पूंजी, मैं मां पर बोझ नहीं बनना चाहता था। जब यह सब मैंने उन्हें बताया तो फिर उन्होंने कुर्सी पर बैठने को मुझे कहा। उनकी आंखों में स्नेह था और फिर उन्होंने मुझे खेल डेस्क पर भेज दिया।
स्नातक का परीक्षा परिणाम आने से पहले भारतीय जीवन बीमा निगम में विकास अधिकारी के पद पर मेरा चयन हो गया। मन नहीं लगा, छह महीने बाद त्यागपत्र देकर फिर आज अखबार ज्वाइन कर लिया। १९९० में छात्रसंघ का चुनाव लड़ा तो अखबार की नौकरी छूट गयी। उसी वर्ष २३ मार्च १९९० को हिन्दी का संघर्ष शुरू हो गया। २० जुलाई १९९० को अमर उजाला की नौकरी मिल गई और फिर पढ़ाई, अखबार की नौकरी व हिन्दी के लिए संघर्ष, तीनों एक साथ चले। अगला पड़ाव दैनिक जागरण और यूनीवार्ता । १९९० में एल-एल०एम० का विद्यार्थी बना था, अब १९९७ आ गया। मेरा वनवास सात वर्ष होम होने पर ही समाप्त हुआ।
सात वर्ष तक हिन्दी माध्यम की मेरी उत्तर-पुस्तिकाऒं को जांचा नहीं गया था। संसद व उत्तर-प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भण्डारी के हस्तक्षेप के बाद ही मेरी उत्तरपुस्तिकाएं जंची थी तब जाकर मैं हिन्दी माध्यम से एल-एल०एम० उत्तीर्ण करने वाला देश का प्रथम विद्यार्थी बना। हिन्दी माध्यम की उत्तर-पुस्तिकाओं में मैंने आपराधिक विधि में देश के अब तक के सर्वोच्च अंक प्राप्त किए। आपराधिक विधि में २०० पूर्णांक में अब तक १२२ अधिकतम अंक थे, मुझे ७३ व ६९ कुल १४२ अधिकतम अंक मिले और परीक्षक ने मेरी उत्तर-पुस्तिकाओं को मानद उत्तर-पुस्तिकाओं के रूप में रखने की अनुशंसा की।
उसी वर्ष १९९७ में अनुबन्धित विधि प्रवक्ता के रूप में राजस्थान चला गया। फिर सन् २००० में द्वितीय विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट(प्रथम श्रेणी) के रूप में लखनऊ में तैनात हुआ। विधि प्रवक्ता और जज भी हिन्दी में ही कार्य दायित्व निभाने का उत्कृष्ट उदाहरण रखने का प्रयत्न मैंने किया। २३ जुलाई २००० को लखनऊ में बतौर द्वितीय विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट (प्रथम श्रेणी) मात्र एक दिन में २५० वाद निपटाने और १९ महीने में पौने चार हजार वाद निपटाने वाले एकमात्र न्यायाधीश बनने का सौभाग्य मुझे मिला। इन्हीं उपलब्धियों के चलते १९ फरवरी २००५ को न्यायिक क्षेत्र का प्रतिष्ठित 'न्याय-मित्र' पुरस्कार मुझे मिला। किसी जज को १३ साल बाद मिला यह पुरस्कार वाद-निर्णयों में विशेष गुणवत्ता, वादों के शीघ्र निस्तारण करने वाले ईमानदारतम् न्यायाधीश को ही मिलता है।
इस पुरस्कार को पाने से पहले २४ अगस्त २००४ को उत्तराखण्ड में देश के सबसे कम आयु के एडीशनल एडवोकेट जनरल की जिम्मेदारी मिली। मेरी उड़ान को मानो पंख मिल गए, मुझे अब न्याय व्यवस्था के सबसे ऊंचे पायदान पर बैठे लोगों को अपने अभियान से अवगत कराना था तो १२ अक्टूबर २००४ को महाधिवक्ता और सरकार के स्तर से इलाहाबाद हाईकोर्ट में उत्तराखण्ड सरकार की ओर से हिन्दी भाषा में पहली बार प्रतिशपथपत्र प्रस्तुत किया। बाधा-अवरोध-प्रतिरोध आये, अपमान भी हुआ। सुविधाभोगी, साधनसंपन्न और प्रभुवादी अंग्रेजीदां जमात ने इसे एक निरर्थक कोशिश बताया और कहा कि इससे न्याय व्यवस्था का स्तर गिर जाएगा, क्वालिटी नहीं रहेंगी आदि-इत्यादि। तब और आज भी उत्तराखण्ड देश का पहला और एकमात्र राज्य बना जिसने महाधिवक्ता और सरकार के स्तर से देश के किसी हाईकोर्ट में हिन्दी भाषा में प्रतिशपथपत्र प्रस्तुत किया हो। तब देश के विधि क्षेत्र में इस घटना को हिन्दी के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण आंका गया था।
१५ मई २००५ को मेरे इस अभियान को तब बल मिला जब इस दिन पंजाब हिन्दी संस्थान की आधारशिला मुझसे रखवायी गई। महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने इससे पूर्व उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की आधारशिला रखी थी। मैं दूसरा हिन्दी सेवी था जिसे किसी हिन्दी संस्थान की आधारशिला रखने का सौभाग्य मिला। इसी पंजाब हिन्दी संस्थान में एक सहयोगी श्री निर्विकार सेठी और वहां सभी लोगों के सामूहिक प्रयत्न से एक वेबसाईट १५ मई २००६ को लांच की गई, इस दिन हम सभी ने एक सीडी भी लांच की जिसमें हिन्दी व कई अन्य भाषाऒं के सैकड़ों फान्ट फ्री कर दिए गए हैं। इस सीडी में कई कुंजी पटल है, फान्टों को परस्पर परिवर्तित करने का सॉफ्टवेयर भी उसमें है। सीडी में शब्दकोष है, वर्तनी जांचने का सॉफ्टवेयर है। कागज को स्कैन करके फॉन्ट में बदलने का टूल है। बोले हुए को लिपिबद्ध करने का टैक्सट-टू-स्पीच टूल है। पंजाब हिन्दी संस्थान की इस पहल का मकसद हिन्दी को पुराणपन्थियों और कट्टरपंथियों के पाले से निकालकर आम आदमी के घर तक ले जाना था। इस मकसद में हम कामयाब भी हुए।
अभी हाल ही में प्रबन्धन में पहली बार हिन्दी भाषा में स्वीकृत शोधपत्र में शोधार्थी श्री भानुप्रताप सिंह ने प्राक्कथन में अटल बिहारी वाजपेयी और मुलायम सिंह यादव के अलावा एमडी की थीसिस पहली बार हिन्दी में प्रस्तुत करने वाले डॉ० मुनीश्वर गुप्त के अलावा मुझे भी शामिल किया है।
मन खिन्न हो जाता है जब देखता हूं कि हिन्दी भाषा की प्रतिष्ठा का यह नव-अभियान अविभाजित उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखण्ड) में रुड़की से ही वर्ष १९८० में शुरू हु्आ। उसी उत्तराखण्ड के अधिवक्ता हिन्दी भाषा के माध्यम से उच्च न्यायिक सेवा(एच०जे०एस०) की परीक्षा में सम्मिलित नहीं हो सकते। इस अपमान के बाद टिप्पणी यह भी आती है कि अंग्रेजी न जानने वाला जिला जज बनने के योग्य नहीं है। आज २००८ में भी उत्तराखण्ड में यह दृश्य है कि हिन्दी भाषा को माध्यम बनाने वाले अधिवक्ता उच्च न्यायिक सेवा (एच०जे०एस) की परीक्षा में सम्मलित नहीं हो सकते। जिस उत्तराखण्ड में वर्ष २००४ में ही उच्च न्यायालय में हिन्दी भाषा में प्रतिशपथपत्र दाखिल हो गया हो। आज वहां मुकदमों की सुनवाई बहस और प्रक्रिया सभी अंग्रेजी में ही है जबकि केशवानन्द भारती बनाम् राज्य १९७३ सुप्रीम कोर्ट में उच्च न्यायालय में हिन्दी भाषा में भी समस्त कामकाज निपटाने की व्यवस्था दी गयी है। स्वयं इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रबन्धन समिति व अन्य बनाम् जिला विद्यालय निरीक्षक, इलाहाबाद (ए०आई०आर० १९७० इलाहबाद, १६४) में एक व्यवस्था प्रतिपादित की गयी जिसमें कहा गया कि माननीय उच्च न्यायालय में कोई भी आवेदन, हिन्दी भाषा में संलग्नकों सहित प्रतिपादित किया जा सकता है। हिन्दी में बहस हो सकती है और माननीय उच्च न्यायालय में हिन्दी भाषा में निर्णय, डिग्री या फिर आदेश प्रतिपादित किए जा सकते हैं, परन्तु माननीय उच्च न्यायालय के प्राधिकार से उन्हें अंग्रेजी में अनुवाद किया जाएगा। उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम २००० की धारा ८६ के अधीन माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद का उक्त आदेश उत्तराखण्ड राज्य में भी प्रभावी है।
इसके अतिरिक्त भारत के संविधान के अनुच्छेद ३४८ के खण्ड-दो व राजभाषा अधिनियम १९६३ की धारा-७ के उपबन्धों के अधीन महामहिम राष्ट्रपति से मांगी गई अनुज्ञा के विषय में माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद द्वारा दिए जाने वाले किसी भी निर्णय, डिग्री या आदेश को हिन्दी में दिए जाने की महामहिम राष्ट्रपित की सशर्त स्वीकृति लागू है।
अभी २४ जुलाई २००८ मेरे हौसलों और हिम्मत की जीत का दिन बन गया जब यह सूचना सार्वजनिक हुई कि नैनीताल हाईकोर्ट में वादी अपना आवेदन हिन्दी भाषा में भी दाखिल कर सकता है और हिन्दी में बहस भी की जा सकती है, हिन्दी भाषा में निर्णय, डिग्री या फिर आदेश प्रतिपादित किए जा सकते है। यद्यपि हाईकोर्ट की सीढ़ियों पर अभी हिन्दी की पदचाप भी सुनाई नहीं देती है, हिन्दी वहां पूरी तरह गायब है लेकिन इस सूचना ने घटाटोप अंधेरे में उम्मीद की एक किरण जगाई है। मेरे हौसलों और हिम्मत का यकीनन यह सबसे अहम और मजबूत पड़ाव है। उत्तराखण्ड हिन्दी अभियान की आद्य-भूमि है। हिन्दी मां है, मां के सम्मान की तरह ही इसकी रक्षा करनी होगी। कालिन्दी के तट से शुरू हुआ यह अभियान गंगा के घाट तक आ पहुंचा। यह बड़े बदलाव का निशान है। गंगा के अविरल प्रवाह की तरह हिन्दी की धारा का सोपान भी कालिन्दी के तट(नई दिल्ली) पर ही हो ऐसी हिन्दीवीरों की इच्छा है।
मुकदमें में जकड़े इस देश के लाखों गरीबों की अपनी भाषा हिन्दी है। कटघरे में खड़ा मजबूर और गरीब वादकारी जानना चाहता है कि उसके विद्वान अधिवक्ता ने न्यायालय में क्या कहा और माननीय न्यायाधीश ने क्या सुना व समझा।
मंजिल से फकत कुछ कदम पहले जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो अपने लोग याद आते हैं। मेरे पहले संपादक श्री शशि शेखर जी, संरक्षक और भ्रातातुल्य अध्यापक प्रोफेसर (श्री) श्रीकृष्ण द्विवेदी (पूर्व डीन, विधि संकाय, आगरा विश्वविद्यालय), अरविन्द मिश्रा (विभागाध्यक्ष, विधि संकाय, आगरा कालेज), डॉ० एसके खण्डेलवाल (प्राचार्य बागला डिग्री कालेज, हाथरस), श्री राजेश अग्रवाल (पूर्व कैबिनेट मंत्री व वर्तमान विधायक बरेली नगर), मित्र दुर्गविजय सिंह एडवोकेट व राकेश अंशुमान पत्रकार आदि।
पापा-माँ, परिवार के सब लोग और सब बहनें। पत्नी कीर्ति ने हर परिस्थिति में मुझे लड़ने का हौसला दिया, अभावों में भी मैंने उसके चेहरे पर अपराजित होने का भाव देखा जिससे मुझे लड़ने की ताकत और चलने की शक्ति मिलती गई। अथर्वा, मेरी पुत्री जो अभी सातवीं कक्षा में है उसने कभी कोई ऐसी मांग नहीं रखीं जिसे मैं पूरा नहीं कर सकता था, जब मैं संघर्षों में घिर गया था और कई-कई सप्ताह बाद घर लौटता था तो मेरी पत्नी कीर्ति बताती थी कि छोटी सी अथर्वा पूजा के समय उनके साथ बैठ जाती थी और तुतलाते हुए हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना करती थी, भद् वान मेरे पापा का ताम बना देना। अथर्वा इन संघर्षों के बीच कब सातवीं कक्षा में आ गई पता ही नहीं चला।
यजुर्वा, जिसे मैं प्यार से गुट्टू कहता हूं, अभी बहुत छोटा है लेकिन जब लड़ते-लड़ते मुझे थकान होने लगती है तो वो पता नहीं किन चक्षुओं से मेरी परेशानी को समझ लेता है और प्यार से हंसते हुए पूछता है - पापा का छोच रहे हो, सुस्त त्यों हो। तो फिर बाधा-अवरोध बौने हो जाते है। दोनों छोटे बच्चों की उन्मुक्त और निश्छल हंसी मुझे जहां फिर, लड़ने के लिए प्रेरित करती रहती हैं, वहीं समाज और राजसत्ता की उपेक्षा से मुझे लड़ाई की नई वजह मिलती रहती है।
न्याय व्यवस्था के शीर्ष पर मेरी हिन्दी प्रतिष्ठित हो, यह मेरा संकल्प है। अंतिम श्वांस तक हिन्दी के लिए मैं लडूंगा, मैं चलूंगा, यह मेरा स्वयं को, स्वयं ही दिया गया वचन है। हमारे आस-पास जो है या जिसे हम पाना चाहते है, वो शुरू में कल्पना भले हो लेकिन दृढ़ इच्छा शक्ति के सामने वो सच मिल ही जाता है। मैं सच को पाने के पथ पर हूं। हो सकता है अनेक लोग मुझसे असहमत हो क्योंकि सच जब अपना सफर शुरू करता है तो उससे सहमति रखने वालों की संख्या असहमति रखने वालों की अपेक्षा कई गुना कम होती है। लेकिन जो भी थोड़े-बहुत साथी है, मेरे लिए पर्याप्त है।
१२वीं कक्षा में पढ़ते हुए जब 'आज' अखबार में अपने पोथी-पत्रा लेकर पहुंचा तो पत्रकार और विधि प्राध्यापक बनने का सपना भी मेरे साथ था। थोड़ी देर में सम्पादक और मेरे सबसे आदरणीय और प्रिय भ्रातातुल्य श्री शशि शेखर जी (वर्तमान में समूह-सम्पादक दैनिक अमर उजाला) का कक्ष में आने के लिए बुलावा आया, मुझे देखकर चौंके, बेटा क्या छपवाना है? उनका पहला प्रश्न था। मैंने धीरे से लगभग हकलाते हुए कहा, छपवाना नहीं, छापना है। फिर डपटने वाले अंदाज में पूछा, क्या चाहते हो? पत्रकार बनना चाहता हूं, मैंने कहा था। फिर सहज होकर जोर से हंसे और बोले, अभी पत्रकार बनने के लिए तुम बहुत छोटे हो, पहले पढ़ो, फिर पत्रकार बनना। मैंने कहा कि मैं पढ़ने के और लड़ने के लिए पत्रकार बनना चाहता हूं। वो गंभीर हो गए। फिर पूछा, समाचार क्या होता है? मैंने कहा, जो कुछ नया घटता है उसे समाचार कहते है। एक क्षण उनकी आंखों में अपनत्व का ऐसा भाव उभरा, मुझे लगा कि मैं छायादार और फलदार विशालकाय वृक्ष के नीचे खड़ा हूं। पिता का साया बचपन में ही मेरे सिर से उठ गया था। मां पर हिमालय सी जिम्मेदारियां थी, मकान के आधे हिस्से का मामूली सा किराया, बाकी पिता की थोड़ी-बहुत संचित पूंजी, मैं मां पर बोझ नहीं बनना चाहता था। जब यह सब मैंने उन्हें बताया तो फिर उन्होंने कुर्सी पर बैठने को मुझे कहा। उनकी आंखों में स्नेह था और फिर उन्होंने मुझे खेल डेस्क पर भेज दिया।
स्नातक का परीक्षा परिणाम आने से पहले भारतीय जीवन बीमा निगम में विकास अधिकारी के पद पर मेरा चयन हो गया। मन नहीं लगा, छह महीने बाद त्यागपत्र देकर फिर आज अखबार ज्वाइन कर लिया। १९९० में छात्रसंघ का चुनाव लड़ा तो अखबार की नौकरी छूट गयी। उसी वर्ष २३ मार्च १९९० को हिन्दी का संघर्ष शुरू हो गया। २० जुलाई १९९० को अमर उजाला की नौकरी मिल गई और फिर पढ़ाई, अखबार की नौकरी व हिन्दी के लिए संघर्ष, तीनों एक साथ चले। अगला पड़ाव दैनिक जागरण और यूनीवार्ता । १९९० में एल-एल०एम० का विद्यार्थी बना था, अब १९९७ आ गया। मेरा वनवास सात वर्ष होम होने पर ही समाप्त हुआ।
सात वर्ष तक हिन्दी माध्यम की मेरी उत्तर-पुस्तिकाऒं को जांचा नहीं गया था। संसद व उत्तर-प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भण्डारी के हस्तक्षेप के बाद ही मेरी उत्तरपुस्तिकाएं जंची थी तब जाकर मैं हिन्दी माध्यम से एल-एल०एम० उत्तीर्ण करने वाला देश का प्रथम विद्यार्थी बना। हिन्दी माध्यम की उत्तर-पुस्तिकाओं में मैंने आपराधिक विधि में देश के अब तक के सर्वोच्च अंक प्राप्त किए। आपराधिक विधि में २०० पूर्णांक में अब तक १२२ अधिकतम अंक थे, मुझे ७३ व ६९ कुल १४२ अधिकतम अंक मिले और परीक्षक ने मेरी उत्तर-पुस्तिकाओं को मानद उत्तर-पुस्तिकाओं के रूप में रखने की अनुशंसा की।
उसी वर्ष १९९७ में अनुबन्धित विधि प्रवक्ता के रूप में राजस्थान चला गया। फिर सन् २००० में द्वितीय विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट(प्रथम श्रेणी) के रूप में लखनऊ में तैनात हुआ। विधि प्रवक्ता और जज भी हिन्दी में ही कार्य दायित्व निभाने का उत्कृष्ट उदाहरण रखने का प्रयत्न मैंने किया। २३ जुलाई २००० को लखनऊ में बतौर द्वितीय विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट (प्रथम श्रेणी) मात्र एक दिन में २५० वाद निपटाने और १९ महीने में पौने चार हजार वाद निपटाने वाले एकमात्र न्यायाधीश बनने का सौभाग्य मुझे मिला। इन्हीं उपलब्धियों के चलते १९ फरवरी २००५ को न्यायिक क्षेत्र का प्रतिष्ठित 'न्याय-मित्र' पुरस्कार मुझे मिला। किसी जज को १३ साल बाद मिला यह पुरस्कार वाद-निर्णयों में विशेष गुणवत्ता, वादों के शीघ्र निस्तारण करने वाले ईमानदारतम् न्यायाधीश को ही मिलता है।
इस पुरस्कार को पाने से पहले २४ अगस्त २००४ को उत्तराखण्ड में देश के सबसे कम आयु के एडीशनल एडवोकेट जनरल की जिम्मेदारी मिली। मेरी उड़ान को मानो पंख मिल गए, मुझे अब न्याय व्यवस्था के सबसे ऊंचे पायदान पर बैठे लोगों को अपने अभियान से अवगत कराना था तो १२ अक्टूबर २००४ को महाधिवक्ता और सरकार के स्तर से इलाहाबाद हाईकोर्ट में उत्तराखण्ड सरकार की ओर से हिन्दी भाषा में पहली बार प्रतिशपथपत्र प्रस्तुत किया। बाधा-अवरोध-प्रतिरोध आये, अपमान भी हुआ। सुविधाभोगी, साधनसंपन्न और प्रभुवादी अंग्रेजीदां जमात ने इसे एक निरर्थक कोशिश बताया और कहा कि इससे न्याय व्यवस्था का स्तर गिर जाएगा, क्वालिटी नहीं रहेंगी आदि-इत्यादि। तब और आज भी उत्तराखण्ड देश का पहला और एकमात्र राज्य बना जिसने महाधिवक्ता और सरकार के स्तर से देश के किसी हाईकोर्ट में हिन्दी भाषा में प्रतिशपथपत्र प्रस्तुत किया हो। तब देश के विधि क्षेत्र में इस घटना को हिन्दी के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण आंका गया था।
१५ मई २००५ को मेरे इस अभियान को तब बल मिला जब इस दिन पंजाब हिन्दी संस्थान की आधारशिला मुझसे रखवायी गई। महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने इससे पूर्व उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की आधारशिला रखी थी। मैं दूसरा हिन्दी सेवी था जिसे किसी हिन्दी संस्थान की आधारशिला रखने का सौभाग्य मिला। इसी पंजाब हिन्दी संस्थान में एक सहयोगी श्री निर्विकार सेठी और वहां सभी लोगों के सामूहिक प्रयत्न से एक वेबसाईट १५ मई २००६ को लांच की गई, इस दिन हम सभी ने एक सीडी भी लांच की जिसमें हिन्दी व कई अन्य भाषाऒं के सैकड़ों फान्ट फ्री कर दिए गए हैं। इस सीडी में कई कुंजी पटल है, फान्टों को परस्पर परिवर्तित करने का सॉफ्टवेयर भी उसमें है। सीडी में शब्दकोष है, वर्तनी जांचने का सॉफ्टवेयर है। कागज को स्कैन करके फॉन्ट में बदलने का टूल है। बोले हुए को लिपिबद्ध करने का टैक्सट-टू-स्पीच टूल है। पंजाब हिन्दी संस्थान की इस पहल का मकसद हिन्दी को पुराणपन्थियों और कट्टरपंथियों के पाले से निकालकर आम आदमी के घर तक ले जाना था। इस मकसद में हम कामयाब भी हुए।
अभी हाल ही में प्रबन्धन में पहली बार हिन्दी भाषा में स्वीकृत शोधपत्र में शोधार्थी श्री भानुप्रताप सिंह ने प्राक्कथन में अटल बिहारी वाजपेयी और मुलायम सिंह यादव के अलावा एमडी की थीसिस पहली बार हिन्दी में प्रस्तुत करने वाले डॉ० मुनीश्वर गुप्त के अलावा मुझे भी शामिल किया है।
मन खिन्न हो जाता है जब देखता हूं कि हिन्दी भाषा की प्रतिष्ठा का यह नव-अभियान अविभाजित उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखण्ड) में रुड़की से ही वर्ष १९८० में शुरू हु्आ। उसी उत्तराखण्ड के अधिवक्ता हिन्दी भाषा के माध्यम से उच्च न्यायिक सेवा(एच०जे०एस०) की परीक्षा में सम्मिलित नहीं हो सकते। इस अपमान के बाद टिप्पणी यह भी आती है कि अंग्रेजी न जानने वाला जिला जज बनने के योग्य नहीं है। आज २००८ में भी उत्तराखण्ड में यह दृश्य है कि हिन्दी भाषा को माध्यम बनाने वाले अधिवक्ता उच्च न्यायिक सेवा (एच०जे०एस) की परीक्षा में सम्मलित नहीं हो सकते। जिस उत्तराखण्ड में वर्ष २००४ में ही उच्च न्यायालय में हिन्दी भाषा में प्रतिशपथपत्र दाखिल हो गया हो। आज वहां मुकदमों की सुनवाई बहस और प्रक्रिया सभी अंग्रेजी में ही है जबकि केशवानन्द भारती बनाम् राज्य १९७३ सुप्रीम कोर्ट में उच्च न्यायालय में हिन्दी भाषा में भी समस्त कामकाज निपटाने की व्यवस्था दी गयी है। स्वयं इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रबन्धन समिति व अन्य बनाम् जिला विद्यालय निरीक्षक, इलाहाबाद (ए०आई०आर० १९७० इलाहबाद, १६४) में एक व्यवस्था प्रतिपादित की गयी जिसमें कहा गया कि माननीय उच्च न्यायालय में कोई भी आवेदन, हिन्दी भाषा में संलग्नकों सहित प्रतिपादित किया जा सकता है। हिन्दी में बहस हो सकती है और माननीय उच्च न्यायालय में हिन्दी भाषा में निर्णय, डिग्री या फिर आदेश प्रतिपादित किए जा सकते हैं, परन्तु माननीय उच्च न्यायालय के प्राधिकार से उन्हें अंग्रेजी में अनुवाद किया जाएगा। उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम २००० की धारा ८६ के अधीन माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद का उक्त आदेश उत्तराखण्ड राज्य में भी प्रभावी है।
इसके अतिरिक्त भारत के संविधान के अनुच्छेद ३४८ के खण्ड-दो व राजभाषा अधिनियम १९६३ की धारा-७ के उपबन्धों के अधीन महामहिम राष्ट्रपति से मांगी गई अनुज्ञा के विषय में माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद द्वारा दिए जाने वाले किसी भी निर्णय, डिग्री या आदेश को हिन्दी में दिए जाने की महामहिम राष्ट्रपित की सशर्त स्वीकृति लागू है।
अभी २४ जुलाई २००८ मेरे हौसलों और हिम्मत की जीत का दिन बन गया जब यह सूचना सार्वजनिक हुई कि नैनीताल हाईकोर्ट में वादी अपना आवेदन हिन्दी भाषा में भी दाखिल कर सकता है और हिन्दी में बहस भी की जा सकती है, हिन्दी भाषा में निर्णय, डिग्री या फिर आदेश प्रतिपादित किए जा सकते है। यद्यपि हाईकोर्ट की सीढ़ियों पर अभी हिन्दी की पदचाप भी सुनाई नहीं देती है, हिन्दी वहां पूरी तरह गायब है लेकिन इस सूचना ने घटाटोप अंधेरे में उम्मीद की एक किरण जगाई है। मेरे हौसलों और हिम्मत का यकीनन यह सबसे अहम और मजबूत पड़ाव है। उत्तराखण्ड हिन्दी अभियान की आद्य-भूमि है। हिन्दी मां है, मां के सम्मान की तरह ही इसकी रक्षा करनी होगी। कालिन्दी के तट से शुरू हुआ यह अभियान गंगा के घाट तक आ पहुंचा। यह बड़े बदलाव का निशान है। गंगा के अविरल प्रवाह की तरह हिन्दी की धारा का सोपान भी कालिन्दी के तट(नई दिल्ली) पर ही हो ऐसी हिन्दीवीरों की इच्छा है।
मुकदमें में जकड़े इस देश के लाखों गरीबों की अपनी भाषा हिन्दी है। कटघरे में खड़ा मजबूर और गरीब वादकारी जानना चाहता है कि उसके विद्वान अधिवक्ता ने न्यायालय में क्या कहा और माननीय न्यायाधीश ने क्या सुना व समझा।
मंजिल से फकत कुछ कदम पहले जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो अपने लोग याद आते हैं। मेरे पहले संपादक श्री शशि शेखर जी, संरक्षक और भ्रातातुल्य अध्यापक प्रोफेसर (श्री) श्रीकृष्ण द्विवेदी (पूर्व डीन, विधि संकाय, आगरा विश्वविद्यालय), अरविन्द मिश्रा (विभागाध्यक्ष, विधि संकाय, आगरा कालेज), डॉ० एसके खण्डेलवाल (प्राचार्य बागला डिग्री कालेज, हाथरस), श्री राजेश अग्रवाल (पूर्व कैबिनेट मंत्री व वर्तमान विधायक बरेली नगर), मित्र दुर्गविजय सिंह एडवोकेट व राकेश अंशुमान पत्रकार आदि।
पापा-माँ, परिवार के सब लोग और सब बहनें। पत्नी कीर्ति ने हर परिस्थिति में मुझे लड़ने का हौसला दिया, अभावों में भी मैंने उसके चेहरे पर अपराजित होने का भाव देखा जिससे मुझे लड़ने की ताकत और चलने की शक्ति मिलती गई। अथर्वा, मेरी पुत्री जो अभी सातवीं कक्षा में है उसने कभी कोई ऐसी मांग नहीं रखीं जिसे मैं पूरा नहीं कर सकता था, जब मैं संघर्षों में घिर गया था और कई-कई सप्ताह बाद घर लौटता था तो मेरी पत्नी कीर्ति बताती थी कि छोटी सी अथर्वा पूजा के समय उनके साथ बैठ जाती थी और तुतलाते हुए हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना करती थी, भद् वान मेरे पापा का ताम बना देना। अथर्वा इन संघर्षों के बीच कब सातवीं कक्षा में आ गई पता ही नहीं चला।
यजुर्वा, जिसे मैं प्यार से गुट्टू कहता हूं, अभी बहुत छोटा है लेकिन जब लड़ते-लड़ते मुझे थकान होने लगती है तो वो पता नहीं किन चक्षुओं से मेरी परेशानी को समझ लेता है और प्यार से हंसते हुए पूछता है - पापा का छोच रहे हो, सुस्त त्यों हो। तो फिर बाधा-अवरोध बौने हो जाते है। दोनों छोटे बच्चों की उन्मुक्त और निश्छल हंसी मुझे जहां फिर, लड़ने के लिए प्रेरित करती रहती हैं, वहीं समाज और राजसत्ता की उपेक्षा से मुझे लड़ाई की नई वजह मिलती रहती है।
न्याय व्यवस्था के शीर्ष पर मेरी हिन्दी प्रतिष्ठित हो, यह मेरा संकल्प है। अंतिम श्वांस तक हिन्दी के लिए मैं लडूंगा, मैं चलूंगा, यह मेरा स्वयं को, स्वयं ही दिया गया वचन है। हमारे आस-पास जो है या जिसे हम पाना चाहते है, वो शुरू में कल्पना भले हो लेकिन दृढ़ इच्छा शक्ति के सामने वो सच मिल ही जाता है। मैं सच को पाने के पथ पर हूं। हो सकता है अनेक लोग मुझसे असहमत हो क्योंकि सच जब अपना सफर शुरू करता है तो उससे सहमति रखने वालों की संख्या असहमति रखने वालों की अपेक्षा कई गुना कम होती है। लेकिन जो भी थोड़े-बहुत साथी है, मेरे लिए पर्याप्त है।
चन्द्र शेखर उपाध्याय
9 comments:
मसला कोई भी हो,लड़ने का माद्दा अहम होता है। सच कहूं,तो िवदरोही तेजिस्वता के िबना किठन लच्छय का संधान संभव नहीं होता। बात िहन्दी को उसका वािजब हक िदलाने का हो या िफर एक नागिरक के तौर पर अपना अिधकार पाने का हो। मोचाॆ संभालना ही पड़ता है। अापने मोचाॆ फतह िकया वह अनुकरणीय है।
भानुप्रतापजी हम आपके साथ हैं। आपकी संघर्ष गाथा पढ़कर बड़ी तसल्ली हुई कि कोई तो है जो लड़ रहा है हिंदी के लिए।
डॉ. मांधाता सिंह और संजय सिंह जी
सादर नमस्कर
आपकी कृपापूर्वक की गई टिप्पणी के लिए आभार।
यह कहानी चंद्रशेखर उपाध्याय की है, जो आगरा के हैं।
डॉ. भानु प्रताप सिंह
आपके जज़्बे को सलाम... ढेर सारी दुआओं के साथ।
चिट्ठे का स्वागत है. लेखन के लिए शुभकामनाएँ. खूब लिखें, अच्छा लिखें.
ब्लॉग की दुनिया में आपका हार्दिक अभिनन्दन.
आप के रचनात्मक प्रयास के हम कायल हुए.
जोर-कलम और ज्यादा.
कभी फ़ुर्सत मिले तो इस तरफ भी ज़रूर आयें.
http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/
http://saajha-sarokaar.blogspot.com/
http://hamzabaan.blogspot.com/
भानु भाई
प्रबंधन में शोध के लिए आपका संघर्ष वाकई काबिलेतारीफ है। यह देश का दुर्भाग्य है, माफ करना उन लोगों का अधिक दुर्भाग्य है, जो अंग्रेजी की बैसाखी से फर्राटा दौड़ जीतन का भ्रम पाले हुए हैं। आपकी लगन सच्ची थी और आपके भीतर कुछ कर गुजरने की आग थी, जो सभी बाधाओं को जलाते हुए आपको लक्ष्य तक पहुंचाकर ही मानीं लेकिन हर किसी के साथ ऐसा नहीं होता। अधिकांश लोग भाषा के ठेकेदारों के दबाव में रणछोड़दास बन जाते हैं। आपकी यह सफलता उन लोगों को प्रेरणा देगी, जो लीक से हटकर कुछ करना चाहते हैं।
पुनः आपको आपके संघर्ष के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं।
चन्द्रशेखर उपाध्याय जी,
आपके जूनून और कर्मठता को बेहद नजदीक से देखा है ! आपका सरल और महत्वकांक्षी व्यक्तित्व ही आपका सबसे बड़ा हथियार है ! मौकापरस्त, अहंकारी और स्वार्थी लोगों को माफ़ कर देना, आपके स्वभाव की कमजोर कड़ी है, अपेक्षा करता हूँ कि इस कमजोर कड़ी को आप भविष्य में मजबूती प्रदान करेंगे !
"आपकी हिम्मत और जज़्बे को सलाम है"
टिप्पणी के लिए धन्यवाद है बार बार
भानु प्रताप सिंह
Post a Comment