3.7.17

मैकाले-अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति से भारतीय भाषाओं की दुर्गति



मनोज ज्वाला

                       विद्यालय सरकारी हों या गैर-सरकारी ; उनमें पढने वाले बच्चों को वही सिखाया-पढाया जा रहा है , जिससे वे अपनी जडों से कट जाएं और नहीं तो कम से कम उनकी भाषाऔर संस्कार तो बदल ही जायें  बोल-चाल और भाषा-संस्कार में अधिक से अधिक अंग्रेजी और अंग्रेजियत का व्यवहार ही आज अपने देश में सुशिक्षित होने का पैमाना बन गया है  जोजितनी ज्यादा अंग्रेजी जानता है , वो उतना ज्यादा शिक्षित जाना-माना जाता है  प्रकारान्तर में यह कि अपनी मातृभाषा , दैशिक भाषा और राष्ट्रभाषा का ज्ञान जिसे जितना ही कम है , वोउतना ही ज्यादा ज्ञानी समझा जा रहा है  ऐसी स्थिति अपने देश में प्रचलित अंग्रेजी-मैकाले शिक्षा-पद्धति के कारण है , जो भारतीय भाषा , संस्कार , ज्ञान , परम्परा के प्रति नकार और अंग्रेजी अंग्रेजियत के प्रति स्वीकार की धारणा पर ही आधारित है 
                 हमारी यह वर्तमान शिक्षा-पद्धति ही है , जो भारतीय ज्ञान-विज्ञान के प्रति संशय और अभारतीय-युरोपीय-अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान के प्रति विश्वास निर्मित करती है , भले ही वास्तविकताचाहे जो भी हो  आज किसी भी शिक्षित आदमी को आप यह बताइए कि संस्कृत भाषा दुनिया की सबसे पुरानी और सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है अथवा यह कि वेदों में आधुनिक ज्ञान-विज्ञानके सारे सूत्र भरे पडे हैं , तो इन बातों को वह तब तक सत्य नहीं मानेगा , जब तक अंग्रेजी भाषा में युरोप-अमेरिका के किसी विद्वान के तत्सम्बन्धी कथनों का उद्धरण उसे देखने-पढने को मिले  अपने स्वत्व के प्रति ऐसी अविश्वासपूर्ण हीनता और अपनी अस्मिता के प्रति विश्वास के लिए अंग्रेजी पर ऐसी निर्भरता हमारी वर्तमान मैकाले शिक्षा-पद्धति की ही देन है  इस पद्धतिसे भारतीय भाषाओंविशेषकर राष्ट्रभाषा-हिन्दी को सर्वाधिक नुकसान हुआ है  अंग्रेजी से कई-गुणी ज्यादा समृद्ध हिन्दी में बेवजह अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल से हिन्दी अब हिंगरेजी बन गईहै , जबकि देवनागरी परिवार की अन्य भारतीय भाषायें भी ऐसी ही दुर्गति की शिकार होती जा रही हैं  इसका असली कारण हमारी वर्तमान मैकाले-अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति ही है  क्योंकि इसपद्धति में एक ओर भाषाओं की पढाई की कोई अवधारणा ही नहीं हैभाषा के नाम पर सिर्फ अंग्रेजी पर ही पूरा जोर होता है ; तो दूसरी ओर भारतीय भाषाओं के प्रति  केवल उदासीनता,बल्कि तिरस्कार की भावना-विचारणा भी विकसित की जाती है  उच्च शिक्षाविशेषकर तकनीकी शिक्षा-प्राप्त औसत विद्यार्थी-व्यक्ति किसी भी भाषा में  शुद्ध बोल सकते हैं ,  शुद्ध लिखसकते हैं  कारण यह बताते हैं कि वो तो अंग्रेजी माध्यम से पढे हुए हैं  जबकिअंग्रेजी भी उनकी टूटी-फुटी ही होती है 
           गौरतलब है कि अंग्रेजी एक लाचार  कामचलाऊ भाषा है  उसमें शब्दों की संख्या भारतीय भाषाओं की अपेक्षा बहुत ही कम है  शब्द-सृजन की क्षमता तो और भी कम है  अंग्रेजी के एक विद्वान के अनुसारकुल पन्द्रह हजार शब्दों में पूरी अंग्रेजी और उसका सारा साहित्यसमाया हुआ है ; जबकि संस्कृत की तो छोडिए , संस्कृत से निकली हुई हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में शब्दों की संख्या लाख से भीअधिक है  संस्कृत में तो कोई सीमा ही नहीं है , क्योंकि उसमें शब्द-निर्माण की क्षमता असीम है  शब्दों की ऐसी दरिद्रता के कारण अंग्रेजी मेंएक ही शब्द का कई भिन्न-भिन्न अर्थों में उपयोग होता है  फलतः भावनाओं और विचारों की सटीक अभिव्यक्ति सम्भव ही नहीं है इस भाषा में बावजूद इसके , हमारे देश के कर्णधारों ने इसी भाषा को  केवल शिक्षा-विद्या , बल्कि शोध-अनुसंधान का भी माध्यम बना रखा हैजिसकेकारण शिक्षार्थियों-विद्यार्थियों , शोधार्थियों  अनुसंधानकर्ताओं में अपनी मातृभाषा-दैशिक भाषा और राष्ट्रभाषा के प्रति उदासीनता होनाअपरिहार्य ही है 
               दरअसल , हुआ यह कि ब्रिटिश शासकों ने भारत को लम्बे समय तक अपने औपनिवेशिक साम्राज्यवाद का गुलाम बनाये रखने के लिए थामस मैकाले की तत्सम्बन्धी षड्यंत्रकारीअंग्रेजी शिक्षण पद्धति को हमारे ऊपर थोप कर इसके पक्ष में देश भर में ऐसी मान्यता कायम कर दी कि अंग्रेजी मान-सम्मानपद-प्रतिष्ठारोजी-रोजगार की ही नहीं , ज्ञान-विज्ञान और प्रगति-उन्नत्ति  समृद्धि हासिल करने की भाषा मानी जाने लगी  तब हमारे देश का लालची और एक हद तक लाचार जन-मानस अंग्रेजी पढने-लिखने-सीखने का ही नहीं , बल्कि अंग्रेज ही बन जानेका प्रयत्न करने लगा  अंग्रेजों के चले जाने के बाद देश की राज-सत्ता उन्हीं के सरपरस्तों द्वारा उन्हीं की रीति-नीति से संचालित होती रही , जिसके कारण देशवासियों की वह प्रयत्नशीलताउसी दिशा में जारी रही 
इस प्रयत्नशीलता में लाचारी कम , लालच ही अधिक दिखती है  सिर्फ लाचारी होती , तो लोग अंग्रेजी पढते-लिखते-सिखते भर , अंग्रेज बनने को उतावला नहीं होते और कम से कम अपनीभाषा का तिरस्कार तो कतई नहीं करते  किन्तु लोगों में अंग्रेज बनने और अंग्रेजियत के माध्यम से दौलत और शोहरत सब कुछ हासिल कर लेने की लालच इस कदर भडक उठी कि लोगअपने बच्चों को अंग्रेजी पद्धति से ही नहीं , बल्कि अंग्रेजी माध्यम से ही पढाने-पढवाने लगे , ताकि बच्चे की अंग्रेजी ऐसी हो जाए जैसे उसकी मातृभाषा ही हो  इसी उद्देश्य से प्रेरित हो करमाता-पिता अपने दूधमुंहें बच्चों को भाषा-ज्ञान का श्रीगणेश  से कन्हैया के बजाय  से अपल का रट्टा पिलाते हुए करने लगे  मातभाषा-दैशिक भाषा-राष्ट्रभाषा की उपेक्षा वहीं से शुरू होगई  फिर तो व्यक्ति-व्यक्ति की ओर से यही प्रयत्न होने लगा कि बोलचाल में अधिक से अधिक अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल किया जाय , तभी अंग्रेजी में पारंगत हुआ जा सकता है  लोग इसतथ्य  सत्य से या तो अनभिज्ञ रहे हैं या जानबूझ कर इसे नजरंदाज करते रहे हैं कि एक से अधिक भाषाओं का ज्ञाता रहा कोई भी व्यक्ति उन सभी भाषाओं के माध्यम से पढाई नहीं किया हैआज तक ; अर्थात किसी विदेशी भाषा का ज्ञान हासिल करने के लिए उसी भाषा के माध्यम से पढाई करना अथवा अपनी भाषा की उपेक्षा करना कतई जरूरी नहीं है  लोगों को इस सच्चाईसे साक्षात्कार शिक्षक ही करा सकते थे  किन्तु शिक्षक ऐसा करें भी तो कैसे ? सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों की प्रतिष्ठा इतनी गिर चुकी है समाज में कि उनकी शैक्षिकता का कोई मतलबही नहीं है , जबकि गैर सरकारी विद्यालयों के संचालक-शिक्षक तो अंग्रेजी माध्यम से पढाने का धंधा ही कर रहे हैं और हिन्दी माध्यम वाले अगर यह सच्चाई बताते भी हैं , तो हमारा समाजइसका अर्थ अंगूर खट्टे हैं से ज्यादा कुछ नहीं समझता  तो इस तरह से हमारी राज-सत्ता की अंग्रेज-परस्त रीति-नीति के कारण देश में कायम अंग्रेजी-मैकाले शिक्षा-पद्धति से  केवल राष्ट्र-भाषा हिन्दी की दुर्गति हो रही है , बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं की भी ऐसी-तैसी हो रही है 
               ऐसे में समाज को ही आगे आना होगा , क्योंकि भारतीय परम्परा में शिक्षा तो समाज का ही विषय रही है , राज्य का नहीं  गुजरात के अहमदाबाद शहर में वहां के जैन-समाज ने यहपहल की है , जो उल्लेखनीय है  मालूम हो कि पिछले वर्षों से उत्तम भाई जवानमल भाई शाह के निर्देशन में हेमचन्द्राचार्य संस्कृत पाठशाला नाम से एक ऐसा गुरुकुल संचालित किया जा रहाजो अंग्रेजी-मैकाले शिक्षण-पद्धति को कडी चुनौती दे रहा है  वहां शिक्षा का माध्यम गुजरातीसंस्कृत और हिन्दी है  बारह वर्ष की उम्र तक वहां बच्चों को अंग्रेजी पढायी ही नहीं जाती है ,जबकि भारतीय ज्ञान-विज्ञान की ७२ कलाओं-विद्याओं की पढाई होती है  बावजूद इसके उन बच्चों की अंग्रेजी किसी अंग्रेजी-माध्यम वाले स्कूल के बच्चों की अंग्रेजी से ज्यादा अच्ची है मैकाले-स्कूलों की डिग्रियों का भी बहिष्कार करने वाले इस गुरुकुल के संचालक उत्तम भाई का मानना है कि उनके बच्चे दुनिया के किसी भी सर्वश्रेष्ठ शिक्षण-संस्थान के बच्चों का मुकाबलाकर सकते हैं  यहां का एक बच्चा पिछले दिनों इण्डोनेशिया में हुई गणित की एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता को जीत कर यह सिद्ध भी कर दिया है , जिसे केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रीप्रकाश जावेडकर ने सम्मानित भी किया हुआ है  भारतीय भाषाओं की दुर्गति की संवाहक मैकाले शिक्षा-पद्धति  शिक्षा के अंग्रेजी माधयम की व्याप्ति को हटाने और उसके स्थान परभारतीय शिक्षा-पद्धति को स्थापित करने के साथ-साथ भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने की दिशा में भाजपा की नरेन्द्र मोदी-सरकार से अपेक्षा की जा सकती हैक्योंकि यह उसराष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा से निकली हुई है जिसकी कार्यक्रमों की प्राथमिकता में यह शामिल है 
लेखक परिचय
मनोज ज्वाला
लेखनवर्ष १९८७ से पत्रकारिता  साहित्य में सक्रियविभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से सम्बद्ध  समाचार-विश्लेषण , हास्य-व्यंग्य , कविता-कहानी , एकांकी-नाटक , उपन्यास-धारावाहिक , समीक्षा-समालोचना , सम्पादन-निर्देशन आदि विविध विधाओं में सक्रिय  * सम्बन्ध-सरोकारअखिल भारतीय साहित्य परिषद और भारत-तिब्बत सहयोग मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य 

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